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________________ १९० अनेकान्त महवीर ने यह अपना मन्तिम वर्षावास भी पावा- मुक्त अवस्था को प्राप्त हुए । पूरी में ही किया वहा हस्तिपाल नामक राजा था। उसकी वह वर्षावास का चतुर्थ मास था, कृष्ण पक्ष था, रज्जुक सभा (लेख-शाला १) में वे स्थिरवास से रहे। पन्द्रहवां दिवस था, पक्ष की चरम रात्रि प्रमावस्या थी। कार्तिक अमावस्या का दिन निकट पाया। अन्तिम देशना एक युग के पाच संवत्सर होते हैं, 'चन्द्र' नामक वह दूसरा के लिए पन्तिम समवशरण की रचना हुई। शक्र ने खड़े । संवत्सर था । एक वर्ष के बारह मास होते हैं, उनमें वह होकर भगवान् की स्तुति की । तदनन्तर राजा हस्तिपाल 'प्रीतिवर्द्धन' नाम का चौथा मास था। एक मास में दो ने खड़े होकर स्तुति की। पक्ष होते है, वह 'नन्दीवद्धन' नाम का पक्ष था। एक पक्ष अन्तिम देशना व निर्धारण में पन्द्रह दिन होते हैं, उनमें 'मग्निवेश्य' नामक वह भगवान् ने अपनी अन्तिम देशना प्रारम्भ की। उस पन्द्रहवां दिन था, जो 'उपशम' नाम से भी कहा जाता देशना में ५५ अध्ययन पूण्य-फल विपाक के और ५५ है। पक्ष में पन्द्रह रातें होती है, वह 'देवानन्दा' नामक मध्ययन पाप-फल विपाक के कहे२; वर्तमान मे जो सुख पन्द्रहवी रात थी, जो 'निरति' नाम से भी कही जाती विपाक और दुख विपाक नाम से भागमरूप है। ३६ है। उस समय अर्च नाम का लव था, मुहूर्त नाम का अध्ययन प्रष्ठ व्याकरण के कहे ३, जो वर्तमान में उत्तरा- प्राण या मित्र नामा : ध्ययन-पागम कहा प्रधान नामक मरुदेवी माता का अध्य- था७ । एक अहोरात्र में तीस मुहर्त होते है, वह सर्वार्द्ध एन कहते-कहते भगवान् पर्यकासन४ (पद्मासन) मे स्थिर नजमावान नारायण मिशन ५. तेण कालेणं तेणं समयेणं......"वाबत्तखिसाइ सव्वारह, बादर मनोयोग और वचनयोग को रोका। सूक्ष्म उय पाल इत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयनामगुत्ते, इमीसे काययोग में स्थित रह बादर काय योग को रोका; वाणी प्रोसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुविइकंताए, और मन के सूक्ष्म योग को रोका। इस प्रकार शुक्ल तिहिं वासेहि अद्धनवमेहि व मासेहि सेसे हिं, पाद ए ध्यान का "सूक्ष्पक्रियाऽप्रतिपाति" नामक तृतीय चरण मज्झिमाए हत्थिवालस्स रण्णो रज्जुमसभाए, एगे प्राप्त किया। तदनन्तर मूक्ष्म काययोग को रोककर मबीए, छ?ण भत्तण अपाणएणं, साइणा नक्खत्तेणं "समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति" नामक शक्न-ध्यान का चतुर्थ जोगमुवागएणं पच्चूसकाल समयसि, सपलियकनिसणे, चरण प्राप्त किया। फिर अ, इ, उ, ऋ,ल के उच्चारण पणपन्न प्रज्झयरणाइ कल्लाणफलविवागाइ पणपन्न काल जितनी शैलेशी-अवस्था को पारकर और चतुर्विध प्रज्झयणाइ पावफलविवागाई छत्तीमं च अयुट्ठप्रघाती कर्म-दल का क्षयकर भगवान् महावीर सिद्ध बुद्ध, वागरणाइ वागरित्ता, पहाणं नाम प्रज्झयण विभावे माणे कालगए विइक्कते समुज्जाए छिन्न-जाइ-जरा१. इसका शुक्ल शाला भी अर्थ किया जाता है । मरण-बंधणे सिद्धे, बद्ध मृत्ते अतगडे परिनिव्वुडे २. समवायाग सूत्र, सम० ५५, कलासूत्र, सू० १४७ सव्वदुक्खप्पहीणे । कल्पसूत्र, सू० १४७, उत्तराध्ययन चूणि, पत्र २८३; -कल्पसूत्र, सू० १४७ उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तिम अध्ययन की अन्तिम ६. ७ प्राण-१ स्तोक गाथा भी इस बात को स्पष्ट करती है ७ स्तोक-१ लव इह पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धि य सम्मए । ७७ लव=१ मुहूर्त यह विशेष उल्लेखनीय है कि यहाँ महावीर को 'बुद्ध' -भगवती सूत्र, शतक ६, उद्देशक ७ भी कहा गया है। ७. शकुन्यादि करण चतुष्के तृतीयमिदम् । अमावास्यो. ४. संपलियंकनिसण्णे-सम्यक पद्मासनेनोपविष्ट तराद्धेऽवश्यं भवत्येतद् । -कल्पसूत्र, कल्पार्थबोधिनी, पत्र १२३ -कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११२
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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