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________________ प्रलोप पाश्र्वनाथ-प्रासाद यह है कि मौर्य काल में नागहृद का अस्तित्व ही नही किया ही जा चुका है कि १३ वी शती से पूर्व कोई सूचना था, इस पुण्यधरा ने नागहृद नाम कब से सार्थक किया? जैन साहित्य नहीं देता, परवर्ती सकेत तो पर्याप्त है। नही कहा जा सकता। सं० ७०२ और सं० ७१८ की नागहृद की स्थापना के समय यदि वह गुहिलकाल में हुई क्रमश. शील और अपराजित की प्रशस्तियों में नागहृद हो तो जैनो का प्रभुत्व था, क्योकि चित्तौड मे हरिभद्रसूरि का सकेत नही है । इसका सर्व प्रथम उल्लेख स० १०८२ का साधना केंद्र स० १०२८ की लकुलीश प्रशस्ति से जैन के लेख में प्राप्त हुमा है जो सग्रहालय के क्रमांक ३५ के सम्पर्क स्वतः मिद्ध है। शिलापट्ट पर अकित है, और नागदा से ही लाया गया। प्रासाद निर्माणकाल के सम्बन्ध में भी प्रमाणाभाव था, पौराणिक पाख्यान तो इसे सोमवंशीय जनमेजय तक में निर्शचत नही कहा जा सकता । स० ११९२ के लेख ले जाते हैं, पर इसमें तथ्य प्रतीत नही होता, मेवाड मे से इतना ही सिद्ध होता है कि इतः पूर्व या समकाल में जनश्र ति है कि नागादित्य ने अपने नाम से नागदा मंदिर का अस्तित्व था, प्राचीन लेख में मम्प्रदाय सूचक बसाया था, रणछोड घट्ट प्रणीत “अमरकाव्य।'' में भी। कोई सकेत नहीं है, तथापि प्रामादस्थ प्रतिमाएं और शिखर यही संकेत है। एतद्विषयक प्रमाण अन्वेषणीय है । प्रस- के बिम्ब दिगम्बर मान्यता का ही समर्थन करते हैं, यहाँ भव नही यहां किसी समय नागवशियों का शासन रहा के साक्ष्य इसे वेताम्बर मदिर प्रमाणित करने में सर्वथा हो या नागपूजा का विशेष प्रचलन, भौर उमी की स्मृति असमर्थ हैं। यह स्पष्ट सकेत इस लिए करना पड रहा है स्वरूप नागहृद नाम पड़ गया हो। कि मुनि श्री मानने हिमांशुविजय जी एवम जैन तीर्थ सर्व ऐतिहासिक घटना प्रमगो से सिद्ध है कि बापा रावल संग्रह के मपादक ने इसे स्पष्टत श्वेताम्बर प्रासाद मनके पूर्व नागहृद का अस्तित्व था। गुहिलकाल में वर्षों वाने का प्रमफल प्रयास किया है। यहां प्रदबद जी के तक पाटनगुर के रूप मे गौरव अजित करता रहा। पास एक और पाश्र्वनाथ का प्रासाद है जिसके स्तम्भ पर पाठवी शती में जैन मस्कृतिका यहा व्यापक प्रचार था, सं० १४२६ का एक लेख है। सभव है उसी ममय गिरिकन्दा में गृहा-चैत्य परिस्था- वास्तुकला के प्रकाश में गृहा-चैत्य ११-१२ वी शती पिन किया जाकर कालान्तर में विशालप्रासाद के रूप में की रचना है, कारण कि इसकी शैली और मकरवक्त्रपरिणत हो गया हो। प्राप्त उल्लेखो का मकेत ऊपर पक्ति, तमालपत्रिका, छाप और खल्वाकृतियाँ, शिखर3. मेरी मेवाड यात्रा पष्ठ ६१, श्रग आदि अन्य प्रयुक्त अलक रण लकुलीश प्रासाद का 1. यह लेख विद्रत्न परमेश्वर जी सोलंकी ने वरदा, वर्ष अनुसरण करते है। कालान्तर मे भक्तो द्वारा प्रान्तरिक ६, अक १ मे प्रकाशित है, यह लेख किसी सूर्यबशी भाग समय-समय पर प्रसाम्प्रदायिक धार्मिक साधना का वैष्णव राजा का है, ६ पक्ति मे नागहद का इम केन्द्र बना रहा । पर पुन सरकार की महति पावश्यप्रकार उल्लेख है:--स्थाननागहृदाभिख्यमस्ति कना है। 2. एलिगान्तिक सोय चक्रे नागहृदापुर । 1. भाग २, पृष्ट ३३६-८, बटोही सम्बोधन मिथ्यामति रैन माहि ग्यानभान उद नाहि प्रातम अनादि पथी भूलो मोख घर है। नरभौ सराय पाय भटकत वस्यो प्राय काम क्रोध ग्रादि तहाँ तमकर को डर है। सोवेगो अचेत सोई खोवेगो घरमधन तहाँ गुरू पाहरू पुकार दया कर है। गाफिल न ह भ्रात ऐसी है अंधेरी राति जागरे बटोही यहा चोग्न को डर है॥१॥ नरभौ सराय सार चारों गति चार द्वार ग्रातमा पथिक तहाँ सोवत अघोरी है। तीनोंपन जाँय प्राव निकस वितीत भए अजो परमाद मद निद्रा माहि धोरी है। तो भी उपगारी गुरु पाहा प्रकार कर हाँ हा रे निद्रालू नर कमी नीद जोरी है। उठे क्यों न मोही दर देश के बटोही अब जागि पंय लागि भाई रही रैन थोरी है ॥२॥
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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