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अनेकान्त
शिष्य ब० नेमिसागर ने वि. सं. १७५७ माघ सुदी १५ कर उसे पढा तो उन चरणों के पाषाण के सामने की पट्टी सोमवार को सब छतों का काम पूरा किया।
पर लिखा हैऐसी किंवदन्ती भी पा रही है कि चन्द्रकीति (सुचउ
"कुण्डलगिरौ श्री श्रीधर स्वामी" गण) नामक कोई भट्टारक भ्रमण करते-करते यहाँ पाए
इस लेख को पढ अपनी बरषों की धारणा सफल उनको दर्शन करके ही भोजन का नियम था । किन्तु कोई
प्रमाणित हो गई और इस प्रमाण की समुपलब्धि में कोई मंदिर पास न होने से वे निराहार रहे तब मनुष्य के छद्म
संदेह नहीं रह गया। यह सूर्य की तरह सप्रमाण सिद्ध है वेश में किसी देवता ने उन्हें कुण्डलगिरि पर ले जाकर
कि-ये चरण श्री श्रीधर स्वामी के है और यह क्षेत्र श्री स्थान का निर्देश किया। वे वहाँ पर गए और इस विशाल
कुण्डलगिरि है। काय प्रतिमा का दर्शन किया । तथा इन्होंने ही इस मदिर का जीर्णोद्धार कराया। किंवदन्ती शिलालेख के लेख से कुण्डलगिरि के नाम के कारण नीचे बसे छोटे से ग्राम मेल खाती है अतः सत्य है। यह जीर्णोद्धार प्रसिद्ध बन्देल- का नाम कुण्डलपुर पड़ा हो इसके पूर्व इस ग्राम को खण्ड केसरी महाराजा छत्रसाल के राज्यकाल मेहमा। "मंदिरटीला" नाम से कहते थे शिलालेख मे इसे इसी कहते हैं अपने आपत्तिकाल मे महाराजा छत्रसाल इस
नाम से उल्लिखित किया गया है। संभवतः ब. नेमिसागर स्थान में कुछ दिन प्रच्छन्न रहे हैं और पुन: राज्य भार
जी का ध्यान भी चरणो के उस छोटे से लेख पर नही प्राप्त करने पर उनके तरफ से ही तालाब सीढियाँ आदि
गया जैसे कि पचासों बरसों से उनके दर्शन करने वाले का निर्माण भक्तिवश कराया गया है।
हजारो व्यक्तियों का नही गया । यह लेख इसके बाद क्षेत्र
के अध्ययन श्री राजारामजी बजाज सिं. बाबलाल जी इन सब प्रमाणों के होते हुए भी लोग संदेह करते थे
कटनी तथा वहाँ के एक मंदिर निर्माणकर्ता ऊँचा के कि वस्तुतः यही स्थान श्रीधर केवली की निर्वाणभूमि है
सिंघई तथा अन्य कई लोगों ने पढ़ा है। इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नही है। अभी इसी वर्ष मैं कुण्डलगिरि गया था, वीर निर्वाण महोत्सव पर ।
क्षेत्र कमेटी के प्रबंधकों से मैने प्रत्यक्ष मे भी निवेदन वहाँ बड़े मंदिर के चौक में एक प्राचीन छतरी बनी है
किया है तथा इस लेख द्वारा भी निवेदन करता हूँ कि और उसके मध्य ६ इच लम्बे चरणयुगल हैं । अनेकों बार ।
उस स्थान को सुरक्षित करावें ताकि उपलब्ध ऐतिहासिक दर्शन किए इन चरणो के । ये भट्टारकों के चरणचिह्न होंगे .
मानते रहे। कारण चरणचिह्न तो सिद्धभूमि में चौक मे छतरी प्रारम्भ से तो है नवीन नही है। स्थापित होने का नियम है यह तो अतिशय क्षेत्र है। सिद्ध उससे चौक में स्थान की कमी आ जाती है पर प्राचीन भूमि नहीं है। अतः यहाँ चरणों का पाया जाना यह होने से अभी तक सुरक्षित चली पाई है। यह भी इस बताता है कि किन्हीं 'भट्टारकों' ने अपने या अपने गुरू के बात का प्रमाण है कि यह श्रीधर केवली का मुक्ति स्थान चरण स्थापित किये होंगे।
ही है कारण छतरी बिना प्रयोजन नही बनाई जाती। । पर इस बार हमारे पाश्चर्य का ठिकाना न रहा जब
१५०१ के संवत् की एक जीर्ण प्रतिमा में उस स्थान का पुजारी ने हमें बताया कि चरणो के नीचे की पट्टी पर
नाम निषधिका (नसियाँ) भी लिखा है। कुछ लेख है हमने तत्काल उसे ले जाकर जमीन में सिर उक्त प्रमाणों के प्रकाश मे यह बिलकुल स्पष्ट है कि रखकर उसे बारीकी से पढ़ा तो घिसे अक्षरों में कुछ स्पष्ट "कुण्डलगिरि" (दमोह म. प्र.) ही श्री श्रीधर केवली की पढने में नही पाया तब जल से स्वच्छ कर कपड़े से प्रक्षाल निर्वाण भूमि है।