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अनेकान्त
उपदेश दिया, पर पार्श्व जिनेन्द्र ने सान्तरोत्तर'-सान्तर मिलकर दस हो जाते है। इनको जीतकर मै न्याय्य मार्ग अर्थात् वर्धमान स्वामी के समयकी अपेक्षा प्रमाण में विशेष से बिहार कर रहा हूँ-यथायोग्य संयम के साधने में और उत्तर अर्थात् महामूल्यवान् होने से प्रधान वस्त्रयुक्त- उद्यत हूँ। (३४-३८) धर्म का उपदेश दिया । मुक्तिरूप एक कार्य में संलग्न दोनों
४ केशि-लोक मे बहुत-से प्राणी पाशबद्ध देखे जाते तीर्थकरो के मध्य में इस बाह्य आचार विषयक उपदेश
है । फिर हे मुने ! तुम उस पाश से मुक्त होकर लघुभूत की विशेषता का कारण क्या है ? ।
होते हुए कैसे बिहार करते हो? गौतम-उक्त दोनो तीर्थकरों ने विज्ञान से-विशिष्ट
गौतम-उन सब पाशो को छेदकर व फिर से वह ज्ञान स्वरूप केवलज्ञान से-जानकर धर्मसाधन को अभीष्ट
बन्धन प्राप्त न हो, इस प्रकार के सद्भूत भावना के माना है। फिर भी लोगो को संयत होने का बोध करामे
अभ्यासरूप उपाय से उन्हें नष्ट करके लघुभूत होता हुआ के लिए उस धर्मसाधनविषयक अनेक प्रकार का विकल्प
मै हे मुने ! विहार कर रहा हूँ-साधना में प्रवृत्त हूँ। किया गया है। लिंग का प्रयोजन यात्रा-सयम का
केशि-वे पाश कौन-से है। निर्वाह-और ग्रहण (ज्ञान) रहा है । वस्तुतः मोक्ष के
गौतम-राग-द्वेष प्रादि तीव्र व स्नेहपाश-स्त्रीसद्भुत (यथार्थ) साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र है; पाटिम
पुत्रादि सम्बन्ध-भयंकर है। उनको छेदकर मै यथान्याय यह दोनो ही तीर्थकगे की प्रतिज्ञा रही है-इस विषय मे
-सूत्रोक्त विधि के अनुसार-क्रमपूर्वक विहार कर रहा दोनों के मध्य में कुछ भी मतभेद नही रहा । (२८-३३) हैं। (३६-४३)
३ केशि--हे गौतम | तुम उन कई हजार शत्रुओ के ५ केशि-हे गौतम | हृदय के भीतर प्रादुर्भूत होकर मध्य में स्थित हो जो तुम्हे प्राप्त करना चाहते है। उन
वह लता स्थित है जो विषफलो को उत्पन्न करती है । सबको तुमने कैसे जीता है ?
तुमने उमे कैसे उग्वाहा? गौतम--एक शत्र के जीत लेने से पाँच, पाँच के जीत गौतम ----मैंने उस पूरी लता को काटकर समूललेने से दस, और दसके जीत लेने से सभी शत्रु विजित, गग-द्वेषरूप जड के साथ नष्ट कर दिया है। इसलिए होते है। इस प्रकार से मैंने उन सबको जीत लिया है। मै विषभक्षण से-विष जैसे दुखद दुष्ट कर्म से-मुक्त केशि-वे शत्रु कौन-से कहे गये है ?
होकर न्यायानुसार विहार कर रहा हूँ। गौतम-एक पात्मा- प्रात्मा से अभिन्न प्रतीत होने
कैशि-वह लता कौन-मी कही गई है.? वाला मन----अजित (दुर्जेय) शत्रु है, क्योकि, समस्त अनर्थों
गौतम--वह लता भवतृष्णा-लोभ-कहा गया है। का कारण वही है। फिर कषाय (४) अजित शत्रु है, ये वह स्वभावत भयानक होकर भयकर फलो को-क्लिप्ट उस प्रात्मा के साथ पांच (४+१) हो जाते है । फिर कर्मों को-उत्पन्न करने वाली है। उसको उखाड़ कर इन्द्रिया अजित शत्रु है, पूर्वोक्त पाँच के साथ इन्द्रियाँ (५) मै यथान्याय विहार कर रह हूँ। (४४-४८) १ यश्चायं सान्तराणि-वर्द्धमानस्वामियत्यपेक्षया मान- ६ केशि-भीषण ज्वालाओं वाली वे भयानक
विशेषतः मविशेषाणि उत्तराणि-मदासल्यतया अग्निया स्थित है जो प्राणियों को जलाती है। तुमने उन्हें प्रधानानि प्रक्रमाद् वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो कैसे बुझाया है ? धर्मः पावन देशित इतीहापेक्ष्यते।
गौतम-जिनेन्द्ररूप महामेघ से प्रादुर्भूत आगमान्तर्गत (नेमिचन्द्र वृत्ति २३, ६-१३) सब प्रकार के जल मे श्रेष्ठ सदुपदेशरूप जल को लेकर समीक्षात्मक विचार के लिए देखिये श्री पं० मैं उससे उन्हे निरन्तर सीचा करता हूँ। इस प्रकार से कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का 'जैन साहित्य का इतिहास सिक्त होकर-शान्त होती हुई-बे अग्नियां मुझे नहीं -पूर्व पीठिका' पृ. ३६४-६६ ।
जलाती है।