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________________ सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव १२५ कैची अथवा उस्तरे से बनवा लेता है पर द्वितीय उत्कृष्ट होता है कि यदि प्रधरतन पदो मे-दमी-नौवी मादि श्रावक उन बालो का लोच ही करता है, प्रथम मफेद नीचे को प्रतिमानो मे-कूछ शिथिलता रहती है तो वह लगोट के साथ उत्तरीय वस्त्र को भी धारण करता है पर उन प्रतिमानो वी पूर्णता मे बाधक नहीं हो सकती है। द्वितीय मात्र दो लगोटों को ही धारण करता है, प्रथम जहा स्थानादि का समार्जन किसी कोमल वस्त्र प्रादि से ३. उपासकाध्ययन पोर सागारधर्मामृत करना है वहा द्वितीय उनका समार्जन मुनिवत् पिच्छो से मोमदेव मूरि विरचित यशस्तिलकचम्पू एक सुप्रसिद्ध करता है, तथा प्रथम यदि पात्र में भोजन करता है तो कागग्रन्थ है । वह पाठ पाश्वासो में विभक्त है। उनमें द्वितीय गहस्थ के द्वारा दिये गये भोजन को हाथ में म प्रथम प्रास्वागों मे यशोधर गजा का जीवन वत्स लेकर शोधनपूर्वक खाता है । इसके अतिरिक्त दूसरे का वणन है और अन्तिम ३ (६.८) ग्राश्वामो मे थावकाचार नाम 'पाय' होता है।। (प्रथम का नाम क्या होता चचिन है । ये तीनो पाश्वाम पामकाध्ययन के नाम से है, इसका उल्लेख नहीं किया गया)। प्रसिद्ध हे६ । उपामक यह श्रावक का सार्थक नाम है, प्रथम उत्कृष्ट थावक के भी वहा दो भेद मूचित क्याकि, वह जिनदेवादि की उपासना-प्राराधना-किया किये गये है२-एक तो वह जो पात्रो को लेकर प्रति के करता है। श्रावक भी उसे इसलिए कहा जाता है कि वह योग्य भोजन को कितने ही घरों से लाता हुआ एक स्थान मुनि जन - मुनि जनो से धर्मविधि को श्रवण किया करता है। मे, जहा प्रासुक जल उपलब्ध होता है, बैठकर हाथ मे (क्रमश) अथवा वर्तन में खाता है। बीच मे यदि कोई भोजन के ६ यह धी प० कैलाशचन्द जी शास्त्री के द्वारा सम्पालिये प्रार्थना करता है तो उसके पूर्व में भिक्षाप्राप्त टिन होकर भारतीय ज्ञानपीठ के द्वारा पृथक भोजन को खाकर तत्पश्चात् प्रावश्यकतानुसार वहा भोजन मे भी प्रकाशित हो चुका है। उसका विशेष परिचय कर लेता है३ । दूसरा वह जिमका नियम एक ही गृह वहा देग्दा जा सकता है। मम्बन्धी भिक्षा का होता है। प्रा. प्रभाचन्द्र विरचित रत्नकरण्डक की टीका मे यहा प्रथम उत्कृष्ट के विषय में जो यह कहा गया प्रत्येक परिच्छेद के अन्त मे जो समाप्ति सूचक वाक्य है कि चार पर्यों में चारों प्रकार के प्राहार के परित्याग ( ममन्तभद्रस्वामिविरचितोपासकाध्ययनटीकायां ) स्वरूप उपवाम उसे करना ही चाहिये५, उमसे प्रतीत उपलब्ध होता है उसमे ऐमा प्रतीत होता है कि रत्न करण्डक का नाम भी उपासकाध्ययन रहा है । १. मा०प०७,३८-३९ व ४५-४६। २. एतेन प्रथमोत्कृष्टो द्वधा स्यादनेकभिक्षानियम. एक- ७ मपत्तदसणाई पइदियह जइजणा मुणेई य । भिक्षानियमश्चेत्युक्तं प्रतिपत्तव्यम् । मामायारि परमं जो खनु तं सावग विन्ति ॥ सा. घ. स्वो. टीका ७-४६ । (धा० प्राप्ति २) ३. मा. घ. ७,४०-४३ । श्रृणोति गुर्वादिम्यो धर्ममिति श्रावकः । (सा.प. ४. सा घ. ७-४६ । स्वो० टीका १-१५)। शृणोति तत्व गुरुभ्य इति ५. कुर्यादेव चतुष्पामुपवासं चतुर्विधम् सा. घ. ".३६। श्रावकः (सा. घ. ५.५५)।
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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