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________________ १८८ अनेकान्त गौतम मोहगत होते है, रुदन करते है ; बुद्ध के उपस्थाक घटनाएं केवल यह कह कर बता दी गई है-"उस रात प्रानन्द मोहगत होते हैं और रुदन करते है। गौतम इस को ऐसा हमा।" बुद्ध का निर्वाण-प्रसंग अपेक्षाकृत अधिक मोह-प्रसंग के अनन्तर ही केवली हो जाते हैं। प्रानन्द कुछ सयोजित लगतार विस्त भी। काल पश्चात् प्रहंत हो जाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण मे महावीर और बुद्ध; दोनों के निर्वाणआयुष्य-बल के विषय मे महावीर और बुद्ध; सर्वथा प्रसंग क्रमशः दिये जाते हैं। मूल प्रकरणों को सक्षिप्त तो दोनों पृथक् बात कहते है । महावीर कहते हैं-"प्रायुष्य मुझे करना ही पड़ा है । साथ-साथ यह भी ध्यान रखा बल बढ़ाया जा सके, न कभी ऐसा हमा है और न कभी गया है कि प्रकरण अधिक से अधिक मूलानुरूपी रहे । ऐसा हो सकेगा।" बुद्ध कहते हैं-"तथागत चाहें तो कल्प महावीर के निर्वाण-प्रसंग में कल्पसूत्र के अतिरिक्त भर जो सकते है।" महावीर का निर्वाण-प्रसंग मूलत: कल्पसूत्र मे उपलब्ध भगवतीसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, सौभाग्यपञ्चम्यादि पर्व होता है । कल्पसूत्र से ही वह टीका, चूणि, व चरित्र-ग्रन्थों कथा संग्रह, महावीर चरियं प्रादि ग्रन्थों का भी प्राधार में पल्लवित होता रहा है । कल्पसूत्र महावीर के सप्तम लेना पड़ा है । बुद्ध के निर्वाण-प्रसंग में महापरिनिव्वान पट्टधर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा सकलित माना जाता है। सुत ही मूलभूत प्राधार रहा है । महत्त्वपूर्ण उक्तियों के वैसे कल्पसूत्र मे देवद्धि क्षमाश्रमण तक कुछ सयोजन होता मूल पाठ भा नवी मूल पाठ भी दोनों प्रसगों के टिप्पण मे दे दिये गये है । रहा है, ऐसा प्रतीत होता है । देवद्धि क्षमाश्रमण का समय महावीर ईस्वी सन् ४५३ माना गया है; पर इसमे तनिक भी अन्तिम वर्षावास सन्देह नही कि महावीर का निर्वाण-प्रसग उस सूत्र का राजगृह से विहार कर महावीर अपापा (पावापुरी)१ मूलभूत अग ही है । भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व ३७१ पाये । समवशरण लगा। भगवान् ने अपनी देशना मे ३५७ का माना गया है। बताया-"तीर्थकरो की वर्तमानता मे यह भारतवर्ष धनबुद्ध की निर्वाण-चर्चा दीघनिकाय के महापरिनिवान- धान्य से परिपूर्ण, गावो और नगरों से व्याप्त स्वर्ग-सदृश मुत्त में मिलती है। इससे ऐसा लगता है कि यह भी होता है। उस समय गाव नगर जैसे, नगर देवलोक जैसे, संगहीत प्रकरण है । दीघनिकाय मूल त्रिपिटक-साहित्य का कोटम्बिक राजा जैसे प्रौर राजा कुवेर जैसे समृद्ध होते अग है, पर महापरिनिध्वानसुत्त के विषय मे राईस डेविड्स१ सर है। उस समय प्राचार्य इन्द्र समान, माता-पिता देव ई० जे० थोमसर विंटरनित्ज ३ का भी अभिमत है कि १ समान, सास माता समान और श्वसुर पिता समान होते वह कुछ काल पश्चात् सयोजित हमा है। इसका अर्थ यह हैं। जनता धर्माधर्म के विवेक से युक्त, विनीत, सत्यभी नहीं कि महापरिनिव्वान सुत्त बहुत अर्वाचीन है। सम्पन्न, देव और गुरु के प्रति समर्पित, सदाचार-युक्त दोनो प्रकरणो की भाव, भाषा और शैली से भी उनकी होती है। विज्ञजनो का प्रादर होता है। कुल, शील तथा काल-विषयक निकटता व्यक्त होती है। प्रालंकारिकता विद्या का अंकन होता है। ईति, उपद्रव प्रादि नही होते । प्रौर अतिशयोक्तिवाद भी दोनो मे बहुत कुछ समान है। राजा जिन-धर्मी होते है। महावीर का निर्वाण-प्रसंग बहुत संक्षिप्त व कहीं-कही "अब जब तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव प्रादि अतीत अक्रमिक-सा प्रतीत होता है। कुछ घटनाएं काल-क्रम की हो जायेगे, कैवल्य और मन: पर्ययज्ञान का भी विलोप शृखला में जूडी ई-सी प्रतीत नहीं होती। बहुत सारी हो जायेगा । तब भारतवर्ष की स्थिति क्रमशः प्रतिकूल ही १. Phys Davids, Dialogues of Buddha, Vol.II, होती जायेगी। मनुष्य में क्रोध प्रादि बढेगे; विवेक हा P.72. घटेगा। मर्यादाएं छिन्न-भिन्न होंगी; स्वैराचार बढेगा, धर्म घटेगा, अधर्म बढ़ेगा। गाव इमान जैसे, नगर प्रेत२. EJ. Thomas, Life of Buddha, P. 156. 3. Indian Literature, Vol. 11, Pp. 37-42. १. यह कौन-सी पावा थो, कहां थी, प्रादि वर्णन देखे."
SR No.538020
Book TitleAnekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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