Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
विश्व-व्यवस्था की आधार शिला है-चेतन व जड़ की सत्ता। सत्ता का शास्त्रीय शब्द है-'सत्' और सत् वह है जो उत्पन्न होता है, व्यय होता है, फिर भी उसमें ध्रौव्य का अंश भी रहता है (उत्पादव्यय धौव्ययुक्तं सत्-तत्वार्थ सूत्र 5/29) उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से जो तदात्मक है, वह सत् है। इन तीन में से दो अंश उत्पाद और व्यय, अस्थिरता या अनित्यता के प्रतीक हैं तो तीसरा ध्रौव्य, स्थिरता एवं नित्यता का। जो ध्रौव्यता है वह द्रव्य है तथा उत्पाद व व्यय उसकी पर्याय कही गई है। जैसे सोने के कंगनों को गला कर हार बनाया गया तो इसमें हार का उत्पाद हुआ तथा कंगन का व्यय, किन्तु इन दोनों पर्यायों में जो ध्रौव्य रहा वह है सोना । द्रव्य तथा पर्यायों के परिवर्तन से ही विश्व की समूची व्यवस्था चल रही है और उसमें द्रव्य रूप ध्रौव्य तत्त्व शाश्वत है। यही सब सत् है यानी कि जड़-चेतन की सत्ता है।
सत्ता का जो चेतन भाग है, वह संवेदनशील तथा अनुभूति स्वरूप है, किन्तु जड़ भाग की शक्ति से अधिकांश प्रवृत्तियां पूर्व निर्धारित एवं हेतुमूलक होती है। अपनी इस निर्धारण की क्रिया में एवं उपयोग की धारा में चेतन पूर्ण स्वतंत्र है। चेतना या उपयोग ही तो मुख्य लक्षण है चेतन का, जीव का, जबकि जड़ सर्वथा अचेतन है यानी कि चेतना शून्य है। इसी कारण से जड़ की अपनी क्रिया में जड़ का अपना कोई हेतु नहीं होता है, फिर भी जड़ की भी क्रिया होती है और निरन्तर होती रहती है, पर होती है हेतु रहित एवं लक्ष्यहीन। हेतु एवं लक्ष्य का अस्तित्व चेतन तत्त्व की क्रियाशीलता से ही दृश्यगत होता है। उपयोग लक्षण है जीव का, जो कभी अजीव नहीं होता :
जीव, चेतन अथवा आत्मा का लक्षण उपयोग (ज्ञान शक्ति) है (उपयोगो लक्षणम्-तत्वार्थ सूत्र, 2/8)। जीव अनादिसिद्ध अर्थात स्वतंत्र द्रव्य माना गया है। तात्विक दष्टि से अरूपी होने के कारण चेतन को कोई भी ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से सीधे तौर पर नहीं होता, बल्कि प्रत्यक्ष अथवा अनुमान को स्व-संवेदन से होता है। आत्मा की इसी पहचान का नाम उपयोग है। आत्मा ज्ञेय है तो उपयोग उसके ज्ञान का साधन। यह विश्व अनेक जड़-चेतन पदार्थों का मिश्रण है। इनमें से यदि कौनसा पदार्थ जड़ है और कौनसा चेतन, इसका निश्चय करना हो तो उसके लिये कसौटी रूप है उपयोग। जिस पदार्थ में न्यूनाधिक रूप से ज्ञान शक्ति का अस्तित्व है तो वह पदार्थ चेतन होगा और जो पदार्थ सर्वथा ज्ञान शक्ति से हीन है वह जड़ होगा। जीवों में ज्ञान-शक्ति का तारतम्य हो सकता है, किन्तु कोई भी जीव ज्ञान-शक्ति से सर्वथा शून्य नहीं हो सकता।
अतः उपयोग अर्थात् बोध रूप व्यापार (क्रियाकलाप) जीव का प्रमुख लक्षण है। बोध का कारण ही चेतन होता है और इसी से बोध-क्रिया संभव बनती है। यह बोध-क्रिया जड़ में कदापि संभव नहीं। उपयोग के आधार पर ही आत्मा को अनन्त गुण-पर्याय वाली माना गया है। कारण, आत्मा स्व-पर स्वरूप प्रकाशक होती है सो वह स्वयं तथा अन्य पदार्थों की पर्यायों का ज्ञान कर सकती है। इसके सिवाय आत्मा जिस रूप में अस्तित्व अथवा अनास्तित्व को जानती है, निर्णयों में उलझती या सुलझती है अथवा सुख या दुःख का अनुभव करती है वह सब उपयोग से ही किया जाता है, जीव की सभी पर्यायों में उपयोग मुख्य होता है।
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