________________
रायचंद भाईके संस्मरण
सामान्य मान्यता ऐसी है कि व्यवहार अथवा व्यापार और परमार्थ अथवा धर्म ये दोनों अलग अलग विरोधी वस्तुएँ हैं । व्यापार में धर्मको घुसेड़ना पागलपन है । ऐसा करनेसे दोनों बिगड़ जाते हैं । यह मान्यता यदि मिथ्या न हो तो अपने भाग्यमें केवल निराशा ही लिखी है, क्योंकि ऐसी एक भी वस्तु नहीं, ऐसा एक भी व्यवहार नहीं जिससे हम धर्मको अलग रख सकें ।
धार्मिक मनुष्यका धर्म उसके प्रत्येक कार्यमें झलकना ही चाहिये, यह रायचंद भाईने अपने जीवनमें बताया था। धर्म कुछ एकादशकेि दिन ही, पर्यूषण में ही, ईद के दिन हीं, या
ववार के दिन ही पालना चाहिये; अथवा उसका पालन मंदिरोंमें, देरासरोंमें, और मस्जिदों में ही होता है और दूकान या दरबारमें नहीं होता, ऐसा कोई नियम नहीं। इतना ही नहीं, परन्तु यह कहना धर्मको न समझनेके बराबर है, यह रायचन्द्र भाई कहते, मानते और अपने आचार में बताते थे ।
उनका व्यापार हीरे जवाहरातका था। वे श्रीरेवाशंकर जगजीवन झवेरीके साझी थे । साथमें वे कपड़े की दुकान भी चलाते थे । अपने व्यवहार में सम्पूर्ण प्रकारसे वे प्रामाणिकता बताते थे, ऐसी उन्होंने मेरे ऊपर छाप डाली थी । वे जब सौदा करते तो मैं कभी अनायास ही उपस्थित रहता । उनकी बात स्पष्ट और एक ही होती थी ।' चालाकी ' सरीखी कोई वस्तु उनमें मैं न देखता था । दूसरेकी चालाकी वे तुरंत ताड़ जाते ते; वह उन्हें असह्य मालूम होती थी । ऐसे समय उनकी भ्रकुटि भी चढ़ जातीं, और आँखोंमें लाली आ जाती, यह मैं देखता था ।
धर्मकुशल लोग व्यवहारकुशल नहीं होते, इस बहमको रायचंद भाईने मिथ्या सिद्ध करके बताया था । अपने व्यापार में वे पूरी सावधानी और होशियारी बताते थे । हीरे जवाहरातकी परीक्षा वे बहुत बारीकीसे कर सकते थे । यद्यपि अंग्रेजीका ज्ञान उन्हें न था फिर भी पेरिस वगैरह अपने आड़तियांकी चिट्ठियों और तारोंके मर्मको वे फौरन समझ जाते थे, और उनकी कला समझने में उन्हें देर न लगती। उनके जो तर्क होते थे, वे अधिकांश सच्चे ही निकलते थे ।
इतनी सावधानी और होशियारी होनेपर भी वे व्यापारकी उद्विग्नता अथवा चिंता न रखते थे। दुकानमें बैठे हुए भी जब अपना काम समाप्त हो जाता, तो उनके पास पड़ी दुई धार्मिक पुस्तक अथवा कापी, जिसमें वे अपने उद्गार लिखते थे, खुल जाती थी ।। मेरे जैसे जिज्ञासु तो उनके पास रोज आते ही रहते थे और उनके साथ धर्म-चर्चा करने में हिचकते न थे । 6 व्यापारके समयमें व्यापार और धर्मके समयमें धर्म' अर्थात् एक समयमें एक ही काम होना चाहिये, इस सामान्य लोगोंके सुन्दर नियमका कवि पालन न करते थे । व शतावधानी होकर इसका पालन न करें तो यह हो सकता है, परन्तु यदि और लोग उसका उल्लंघन करने लगें तो जैसे दो घोड़ोंपर सवारी करनेवाला गिरता है, वैसे ही वे भी अवश्य गिरते । सम्पूर्ण धार्मिक और वीतरागी पुरुष भी जिस क्रियाको जिस समय करता हो, उसमें ही लीन हो जाय, यह योग्य है; इतना ही नहीं परन्तु उसे यही शोभा देता है । यह उसके योगकी निशानी है। इसमें धर्म है। व्यापार अथवा इसी तरहकी जो कोई