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कल्पना करते हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में इन्द्रध्वजमहोत्सव का उल्लेख है जो उत्सव के दिन विजयोल्लास के कारण सर्वप्रथम नाट्य का प्रयोग हुआ होगा। किन्तु इस उत्स से नाट्योत्पत्ति की कल्पना असम्भव है क्योंकि नाटकों का प्रयोग विशेष उत्सव पर मनोरञ्जन के लिए होता है। अत एव उत्सव नाट्योद्भव का मूलकारण नहीं हो सकता ।
निष्कर्ष- भारतीय नाट्य के उद्भव के विषय में प्रामाणिक ग्रन्थों के अभाव के कारण निश्चित रूप से कुछ भी कहना असम्भव है किन्तु यत्र-तत्र विकीर्ण तथ्यों के आधार पर यह माना जाता है कि अतिप्राचीनकाल में भी नाट्य का अस्तित्व था। साहित्य के क्षेत्र में सर्वाङ्गतत्त्वों के साथ नाट्य भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से प्रकाश में आया और तभी से प्रगतिपथ पर निरन्तर अग्रसर है। सम्प्रति विद्यमान विस्तृत और विकसित नाट्य-साहित्य अनेक शताब्दियों से विकसित नाट्यप्रवृत्ति का परिणाम है। समय-समय पर इसमें नूतनविचारों और तथ्यों का समावेश हुआ नाट्योंद्रव काल से भास, कालिदास, भवभूति, शूद्रक, हर्ष, भट्टनारायण, राजशेखर इत्यादि नाट्य प्रणेताओं के नाट्यों और भरत, अभिनवगुप्त, धञ्जजय, सागरनन्दी, रामचन्द्र, गुप्तचन्द्र, भोज, शारदातनय, शिङ्गभूपाल, विश्वनाथ, विद्यानाथ, जगन्नाथ इत्यादि आचार्यों के नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों की नाट्य-साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इसी कारण आज नाट्य-साहित्य अपनी चरमावस्था के विकास को प्राप्त हुआ है।
नाट्यशास्त्र की परम्परा और शिङ्गभूपाल आचार्य भरत से पहले भी नाट्यशास्त्र-विषयक ग्रन्थों का प्रणयन अवश्य हुआ था किन्तु आज इन ग्रन्थों के उपलब्ध न होने के कारण आचार्य भरत का नाट्यशास्त्र ही सर्वप्राचीन नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ माना जाता है और आचार्य भरत नाट्यशास्त्र के प्रतिष्ठापक माने जाते हैं।
आचार्य भरत- भारतीय-परम्परा नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध रचयिता भरत को 'मुनि' की पदवी से विभूषित करती है और उन्हें पौराणिक युगीन मानती है। इनका समय विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर ई.पू. द्वितीय शताब्दी से लेकर ईसा की द्वितीय शताब्दी तक निर्धारित करने का प्रयत्न किया है। भरत मुनि का एकमात्र ग्रन्थ नाट्यशास्त्र है। जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि यह नाट्यविषयक लक्षण ग्रन्थ है किन्तु वस्तुतः यह समस्त कलाओं का विश्वकोष है, जैसा नाट्यशास्त्र में ही कहा गया है
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला। न स योगो न तत्कर्म यन्नाटयेऽस्मिन् न दृश्यते॥ (नाट्यशास्त्र 1/116) शारदातनय ने भावप्रकाशन में नाट्यशास्त्र के दो प्रकार के मूलपाठ का उल्लेख