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श्रद्धा का लहराता समन्दर
२५ । आपश्री से सेवा-स्वाध्याय-प्रवचन आदि अनेकों कलाएँ सीखने व्यक्ति निरुत्तर हो जाता था, गुरुदेवश्री आशुकवि भी थे, तत्काल को मिलती थीं। ध्यान प्रक्रिया की ओर आपश्री का विशेष लक्ष्य था। कविता बनाते थे, उन्होंने हजारों भजन बनाए, सैंकड़ों चौपाइयाँ अनक गुणसम्पन्न श्रमणसंघ के उपाध्याय पूज्य श्री पुष्कर ।
लिखीं। गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में गुरुदेवश्री ने विपुल मुनिजी म. को इस अकिंचन मुनि की श्रद्धांजलि।
साहित्य का सृजन किया। गुरुदेवश्री की जप-साधना बहुत ही गजब की थी, वे खूब जप करते, जप साधना उनकी सिद्ध हो चुकी थी,
इसलिए हजारों व्यक्ति उनके मंगल पाठ को श्रवण कर आधि-व्याधि । महान् कलाकार : पूज्य गुरुदेव श्री )
और उपाधि से मुक्त हुए, वे परम दयालु थे। किसी भी दुःखी को -पं. श्री हीरामुनिजी म. “हिमकर" नहीं देख पाते थे, दुःखी को देखकर उनका हृदय दया से द्रवित हो
उठता था। गुरुदेवश्री इतने सौभाग्यशाली रहे कि उनके सामने ही उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का मेरे जीवन । स्वर्गीय आचार्यसम्राट् श्री आनन्द ऋषिजी म. ने श्री देवेन्द्र मुनिजी पर असीम उपकार है, मेरा जीवन एक अनघड़ पत्थर की तरह म. को उपाचार्य पद प्रदान किया और उन्हीं के सामने उदयपुर में था, अरावली की पहाड़ियों में बसा हुआ समीजा ग्राम में क्षत्रिय | "आचार्य पद चद्दर समारोह" सानंद संपन्न हुआ। और अंतिम कुल में मेरा जन्म हुआ और बाल्यकाल के सुनहरे क्षण पशुओं को समय में संथारा कर वे स्वर्गस्थ हुए, संथारा और स्वर्गवास के चराने में बीते, न शिक्षा और न धर्म का वातावरण, सद्गुरुणी जी समय २०० से अधिक साधु-साध्वियों की उपस्थिति इस बात की श्री शीलकुंवर जी म. के सम्पर्क में आकर महास्थविर श्री ताराचंद्र द्योतक है कि वे कितने महान् थे। जी म. और गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. के चरणों में पहुँचा।
__हमारे पर गुरुदेव उपाध्यायश्री की सदा असीम कृपा रही है, युवावस्था में गुरुदेवश्री ने बहुत ही श्रम कर मुझे अक्षर ज्ञान
मुझे समय-समय पर गुरुदेवश्री हित शिक्षा प्रदान करते थे। करवाया और आगे बढ़ाया। यदि पूज्य गुरुदेवश्री उस समय इतना
गुरुदेवश्री के स्वर्गवास से श्रमणसंघ में एक महान् ज्योतिर्धर संत श्रम नहीं करते तो मेरे जीवन का कायाकल्प नहीं होता। वस्तुतः वे
रत्न की कमी हुई है, जिसकी पूर्ति होना निकट भविष्य में संभव जीवन के महान् कलाकार थे।
नहीं है। मैं गुरुदेव के चरणों में अपनी ओर से भाव-भीनी _विक्रम संवत् १९९५ में मेरी आर्हती दीक्षा हुई और श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ यही मंगल कामना करता हूँ कि नहास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. का शिष्यत्व स्वीकार किया। मेरे । आपश्री के सदा मंगलमय आशीर्वाद से मेरी आध्यात्मिक प्रगति नश्चात् श्री देवेन्द्र मुनि जी "शास्त्री' दीक्षित हुए। उनका और मेरा होती रहे। अध्ययन साथ-साथ चलता रहा और प्रबल पुरुषार्थ के कारण और उपाध्याय गुरुदेवश्री के मंगलमय आशीर्वाद के स्वरूप वे श्रमणसंघ माता महान संत का महाप्रयाण के आचार्य पद पर आसीन हुए। उपाध्यायश्री प्रबल पुण्य के धनी थे, यही कारण है कि
-तपस्वी श्री सुदर्शन मुनिजी म. की आज्ञा से राजेश मुनि महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. के स्वर्गवास के पश्चात् केवल चार
उपाध्याय श्री जी के हमारे मध्य से महाप्रयाण कर जाने से संत रह गये थे, किन्तु पूज्य गुरुदेवश्री के पुण्य प्रताप से अनेक
श्रमणसंघ की ही नहीं अपितु समग्र राष्ट्र और विश्व की एक दीक्षाएँ हुईं और हमारे गच्छ ने अपूर्व प्रगति की। गुरुदेवश्री सिद्ध
अपूरणीय क्षति हुई है जो भविष्य में पूर्ण होना असम्भव है। जपयोगी थे, प्रखर वक्ता थे, उनकी वाणी में गांभीर्य था, ओज था और जब कभी भी किसी भी विषय पर प्रवचन करते तो वे उसके
। यहाँ अम्बाला के श्रीसंघ ने एवं विराजित साधु-साध्वियों ने तलछट तक पहुँचकर विषय का विश्लेषण करते, साथ ही आगम,
५/४/९३ को एक शोक सभा मनाई और उपाध्याय श्री के व्यक्तित्व वेद, उपनिषद, धर्म ग्रंथ और संस्कृत वांगमय की सूक्तियों के साथ
एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया। हिन्दी-राजस्थानी-गुजराती और मराठी की कविताएँ भी प्रस्तुत आचार्यवर! तपस्वी श्री सुदर्शन मुनिजी महाराज ने फरमाया है करते, लोक कथाओं के माध्यम से विषय को इतना सरस बना देते कि "आप स्वयं महान श्रमण संघ के शासक और कालज्ञ हैं इस थे कि सुनते-सुनते श्रोता हँसी से लोटपोट हो जाते थे, गुरुदेव के 1 दुःखद परिस्थिति में धैर्य के साथ, परिस्थिति के साथ समझौता प्रवचन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि साक्षर और निरक्षर सभी करने में आप समर्थ हैं अतः मेरा यही कहना है कि उपाध्याय श्री समान रूप से प्रभावित होते थे।
जी का दिव्याशीर्वाद आपको और हमें प्राप्त हो और श्रमणसंघ का मैंने यह भी देखा कि गुरुदेवश्री सफल वक्ता थे और धार्मिक
विकास हो एवं आपका शासनकाल श्रमणसंघ के विशेष उत्थान के
लिए हो।" चर्चा करने में तो गुरुदेवश्री के समान हस्ती ढूँढ़ने पर भी मिलना कठिन है। गुरुदेवश्री इस प्रकार तर्क प्रस्तुत करते कि सामने वाला पुनः यथायोग्य वन्दना एवं सुखसाता के साथ।
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