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की उपज होते हुए भी दोनों में इतना अन्तर कैसे हो गया, यह एक बड़ा रोचक विषय है जिसका स्वतंत्र रूप से अध्ययन करने की आवश्यकता है । जो कुछ भी हो, आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्पसूत्र आदि आगमों में भाषा का जो स्वरूप दिखाई देता है, वह काफी प्राचीन है। दुर्भाग्य से इन सूत्रों के संशोधित संस्करण अभीतक प्रकाशित नहीं हुए, ऐसी दशा में पाटन और जैसलमेर के प्राचीन भंडारों में पाई जानेवाली हस्तलिखित प्रतियों में भाषा का जो रूप उपलब्ध होता है, वही जैन आगमों की प्राकृत का प्राचीनतम रूप समझना चाहिये ।
आगमों का महत्व इसमें सन्देह नहीं कि महावीरनिर्वाण के पश्चात् १००० वर्ष के दीर्घकाल में आगम साहित्य काफी क्षतिग्रस्त हो चुका था | दृष्टिवाद नाम का बारहवाँ अंग लुप्त हो गया था, दोगिद्धदसा, दीहदसा, बंधदसा, संखेवितदसा और पण्हवागरण नाम की दशायें व्युच्छिन्न हो गई थीं, तथा कालिक और उक्कालिक श्रुत का बहुत सा भाग नष्ट हो गया था। आचारांग सूत्र का महापरिण्णा अध्ययन तथा महानिशीथ और दस प्रकीर्णकों का बहुत-सा भाग विस्मृत किया जा चुका था। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति,
१. बृहत्कल्पभाष्य की विक्रम संवत् की १२वीं शताब्दी की लिखी हुई एक हस्तलिखित प्रति पाटण के भंडार में मौजूद है। इस सूचना के लिये पुण्यविजय जी का आभारी हूँ।
२. विन्टरनीज़ आदि विद्वानों ने आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक आदि प्राचीन जैन सूत्रों की पद्यात्मक भाषा की धम्मपद आदि की भाषा से तुलना करते हुए, गद्यात्मक भाषा की अपेक्षा उसे अधिक प्राचीन माना है। देखिये प्राकृतभाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ २९ । ____३. अनुपलब्ध आगमों की एक साथ दी हुई सूची के लिये देखिये, प्रोफेसर हीरालाल रसिकदास कापड़िया, भागमोनुं दिग्दर्शन, पृष्ठ १९८ २०६ ।