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* प्रथम सर्ग *
पिताके कहे अनुसार दानमें कमी कर देनेसे कुमारकी बड़ी बदनामी होने लगो । एक दिन कितनेही याचकोंने मिलकर कुमारसे कहा, – “हे दानवीरोंमें मुकुट-रूपी कुमार ! आपने यह एकाएक कैसा काम करना शुरू कर दिया ? दान करने में चिन्तामणिके समान होते हुए भी आप पत्थर के टुकड़ेकी तरह क्यों हो गये ? इस जगतमें दानही श्रेष्ठ वस्तु है I जैसे दूध बिना गायकी कोई पूछ नहीं होती, वैसेही मक्खी चूसको कोई नहीं पूछता । कहा भी है कि चिटियोंका जमा किया हुआ धान्य, मक्खियों का जमा किया हुआ शहद और कृपणोंकी जमा की हुई लक्ष्मी दूसरेही भोग करते हैं । संग्रह करते करते समुद्र तो पातालमें पहुँच गया और दानो मेघ सबके सिरपर गरजते रहते हैं । धन, देह और परिवार आदि सभीका नाश हो जाता है, किन्तु दानसे उपार्जन की हुई कीर्त्ति सदा जगतमें जागती रहती है । हे कुल दीपक कुमार ! आपकी मति ऐसी क्योंकर पलट गयी ? सन्तजन तो अङ्गीकार किये हुए व्रतको कभी नहीं छोड़ते। कहा भी है कि, सूर्य किसके कहेसे अन्धकारका नाश करता है ? राह चलनेवालोंके सिरपर छाया करनेके लिये वृक्षोंसे कौन कहने जाता है ? वर्षा में पानी बरसानेके लिये कोई बादलोंसे प्रार्थना थोड़े ही करता है ? सज्जनोंका तो स्वभावही है कि दूसरोंकी भलाई करे। उत्तम पुरुष जिस कामको उठाते हैं, उसे कभी नहीं छोड़ते । धतूरेका फूल बिना गन्धका होता है, तो भी महादेव उसे नहीं त्यागते । इसी तरह महादेव विषको, चन्द्रमा