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अनगार न जान सकता है, न देख सकता है। अतः द्रव्यतः भी योग और लेश्या भिन्नभिन्न हैं।
लेश्यापरिणाम जीवोदयनिष्पन्न है (.४६.१) तथा योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयक्षयोपशम जनित है ( देखें ठाण० स्था ३॥ सू० १२४ की टीका)। कहा भी है-योग वीर्य से प्रवाहित होता है (देखें भग० श १ । उ ३ । प्र० १३०)।
जीव परिणामों का विवेचन करते हुए ठाणांग के टीकाकार लेश्या परिणाम के बाद योगपरिणाम क्यों आता है, इसका कारण बतलाते हुए कहते हैं कि योग परिणाम होने से लेश्या परिणाम होते हैं तथा समुच्छिन्न क्रिया-ध्यान अलेशी को होता है। अतः परिणाम के अनंतर योग परिणाम का वर्णन किया गया है। जिस प्रकार द्रव्य मन
और द्रव्य वचन के पद्गल काय योग से गृहीत होते हैं उसी प्रकार लेश्या-पुद्गल भी काययोग के द्वारा ग्रहण होने चाहिए। तेरहवें गुणस्थान के शेष के अंतर्महूर्त में मनोयोग तथा वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्ध निरोध हो जाता है तब लेश्या परिणाम तो होता है लेकिन काययोग की अर्धता-क्षीणता के कारण द्रव्यलेश्या के पुद्गलों का ग्रहण रुक जाना चाहिए। १४वें गुणस्थान के प्रारंभ में जब योग का पूर्ण निरोध हो जाता है तब लेश्या का परिणमन भी सर्वथा रुक जाता है। अतः तब जीव अयोगी-अलेशी हो जाता है।
योग और लेश्या में भिन्नता प्रदर्शित करनेवाला एक विषय और है। वह है वेदनीय कर्म का बंधन । सयोगी जीव के प्रथम दो भंग से अर्थात् (१) बांधा है, बांधता है, बांधेगा, (२) बांधा है, बांधता है, बांधेगा नहीं—से वेदनीय कर्म का बंध होता है। लेकिन सलेशी के प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ भंग-(४) बांधा है, न बांधता है, न बांधेगा से वेदनीय कर्म का बंध होता है (देखें ६६२४)। सलेशी के (शुक्ललेशी सलेशी के ) चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बंधन समझ के बाहर की बात है। फिर भी मूल पाठ में यह बात है तथा टीकाकार भी इसका कोई विवेकपूर्ण एक्स्प्ले नेसन नहीं दे सके हैं। टीकाकार ने घंटा-लाला न्याय की दोहाई देकर अवशेष बहुश्रुत गम्य करके छोड़ दिया है।
लेश्या एक रहस्यमय विषय है तथा इसके रहस्य की गुत्थी इस कलिकाल में खुलनी कठिन है। फिर भी यह बड़ा रोचक विषय है। सम्पादकों ने इसका वर्गीकरण बड़े सुन्दर ढंग से किया है जो इसको समझने में अति सहायक होता है। सम्पादकों से निवेदन है कि वे दिगम्बर संकलन को शीघ्र ही प्रकाशित कर दें जिससे पाठकों को इसकी अनसुलझी गुत्थियाँ सुलझाने में सम्भवतः कुछ सहायता मिल सके । इत्यलम् । कलकत्ता-२६)
हीराकुमारी बोथरा आषाढ़ शुक्ला दशमी,
(व्याकरण-सांख्य–वेदान्त तीर्थ ) वि० संवत् २०२३
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