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लेश्या - कोश
१७५
जीवा, नवरं पमत्त अप्पमत्ता न भाणियव्वा, तेऊलेसस्स, पम्हलेसस्स, सुक्कलेसरस जहा ओहिया जीवा, नवरं - सिद्धा न भाणियव्वा ।
| जीव
- भग० श १ । १ । प्र ४७, ४८, ५३ । पृ० ३८८-८६ कोई एक जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी होता है, अनारंभी नहीं होता है । कोई एक जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी नहीं होता है, अनारंभी होता दो प्रकार के होते हैं - यथा ( १ ) संसारसमापन्नक तथा ( २ ) असंसारसमापन्नक । उनमें से जो असं सारसमापन्नक जीव हैं वे सिद्ध हैं तथा सिद्ध आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी नहीं होते हैं, अनारंभी होते हैं। जो संसारसमापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के होते हैं, यथा – (१) संयत, (२) असंयत । जो संयत होते हैं वे दो प्रकार के होते हैं, यथा – (१) प्रमत्त संयत, (२) अप्रमत्त संयत । इनमें से जो अप्रमत्त संयत हैं वे आत्मारंमी, परारंभी, उभयारंभी नहीं होते हैं, अनारंभी होते हैं । इनमें जो प्रमत्त संयत हैं वे शुभयोग की अपेक्षा आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी नहीं होते हैं, अनारंभी होते हैं तथा वे अशुभयोग की अपेक्षा आत्मारंभी परारंभी, उभयारंभी होते है, अनारंभी नहीं होते हैं। जो असंयत हैं वे अविरति की अपेक्षा आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी होते हैं। इसलिए यह कहा गया है कि कोई एक जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी होता है, अनारंभी नहीं होता है तथा कोई एक जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी नहीं होता है, अनारंभी होता है ।
औधिक जीवों की तरह सलेशी जीव भी कोई एक आत्मारम्भी, परारम्भी तथा उभयारम्भी है, अनारम्भी नहीं है ; कोई एक आत्मारम्भी, परारम्भी, उभयारम्भी नहीं है, अनारम्भी है। सलेशी जीव सभी संसारसमापन्नक हैं अतः सिद्ध नहीं हैं।
कृष्णलेशी, नीललेशी तथा कापोतलेशी जीव मनुष्य को छोड़कर औधिक जीव दण्डक की तरह आत्मारंभी, परारंभी तथा उभयारम्भी हैं, अनारम्भी नहीं हैं। यह अविरति की अपेक्षा से कथन है । कृष्णलेशी, नीललेशी तथा कापोतलेशी मनुष्य कोई एक आत्मारम्भी, परारम्भी तथा उभयारम्भी है, अनारम्भी नहीं है; कोई एक आत्मारम्भी, परारम्भी तथा उभयारम्भी नहीं है, अनारम्भी है लेकिन इनमें प्रमत्तसंयत- अप्रमत्तसंयत भेद नहीं करने, क्योंकि इन श्याओं में अप्रमत्तसंयतता सम्भव नहीं है ।
यहाँ टीकाकार का कथन है कि इन लेश्याओं में प्रमत्तसंयतता भी सम्भव नहीं है । टीका - कृष्णादिषु हि अप्रशस्तभावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति x x x तद् द्रव्यलेश्यां प्रतीत्येति मन्तव्यं, ततस्तासु प्रमत्ताद्यभावः ।
टीकाकार का भाव है कि कृष्ण-नील कापोतलेशी मनुष्यों में संयत-असंयत भेद भी नहीं करने क्योंकि इन लेश्याओं में प्रमत्तसंयतता भी सम्भव नहीं है।
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