________________
२१८
लेश्या-कोश जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाई भणियाई एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सयाणि लेस्सासंजुत्ताणि भाणियव्वाणि । सव्वे पाणा० तहेव नो इण? सम? । एवं एयाई बारस एगिदियमहाजुम्मसयाई भवंति ।
-भग० श ३५ | श ६ से १२ | पृ० ६२६-३० कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी दूसरे उद्देशक में वर्णित कृष्णलेशी शतक की तरह कहना।
इसी प्रकार नीललेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी शतक कहना। तथा कापोतलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी एकादश उद्देशक सहित-ऐसा ही शतक कहना। इसी प्रकार चार भवसिद्धिक शतक भी जानना। तथा चारों भवसिद्धिक शतकों में-सर्व प्राणी यावत् पूर्व में अनंत बार उत्पन्न हुए हैं इस प्रश्न के उत्तर में 'यह सम्भव नहीं'—ऐसा कहना।
जैसे भवसिद्धिक के चार शतक कहे वैसे ही अभवसिद्धिक के भी चार शतक लेश्यासहित कहने । इनमें भी सर्व प्राणी यावत् सर्व सत्त्व पूर्व में अनंत बार उत्पन्न हुए हैं-इस प्रश्न के उत्तर में 'यह सम्भव नहीं' ऐसा कहना। '८६२ सलेशी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव :___कडजुम्मकडजुम्मबेंदिया णं भंते ! (कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ?) xxx तिन्नि लेस्साओ।xxx एवं सोलससु वि जुम्मसु ।
-भग० श ३६ । श १ । उ १ । प्र १-२ । पृ० ६३० कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय में कृष्ण-नील-कापोत ये तीन लेश्याएँ होती हैं । इसी प्रकार सोलह महायुग्मों में कहना। ___कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मबेइं दिया णं भंते ! कओ उववजंति० १ एवं चेव । कण्हलेस्सेसु वि एकारसउद्दे सगसंजुत्तं सयं। नवरं लेस्सा, संचिट्ठणा, ठिई जहा एगिदियकण्हलेस्साणं।
एवं नीललेस्सेहि वि सयं । एवं काऊलेस्सेहि वि।
भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मवेइ दिया णं भंते० ! एवं भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमएणं नेयव्वा । नवरं सव्वे पाणा० ? नो इण8 सम?। सेसं तहेव ओहियसयाणि चत्तारि।
जहा भवसिद्धियसयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भाणिय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org