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लेश्या-कोश
२७५ जीव का जो व्यापार है वह मनोयोग है। अतः कायादिकरणयुक्त आत्मा की वीर्य परिणति विशेष को. योग कहा जाता है और उसीको लेश्या कहते हैं ।
तेरहवें गुणस्थान के शेष अन्तर्मुहूर्त के प्रारम्भ में योग का निरोध प्रारम्भ होता है । मनोयोग तथा वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्ध निरोध होता है (देखो ६५.४ )। उस समय में लेश्या का कितना निरोध या परित्याग होता है इसके सम्बन्ध में कोई तथ्य या पाठ उपलब्ध नहीं हुआ है। अवशेष अर्ध काययोग का निरोध होकर जब जीव अयोगी हो जाता है तब वह अलेशी भी हो जाता है। अलेशी होने की क्रिया योग निरोध के प्रारम्भ होने के साथ-साथ होती है या अर्ध काययोग के निरोध के प्रारम्भ के साथ-साथ होती है-यह कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह निश्चित है कि जो सयोगी है वह सलेशी है तथा जो अयोगी है वह अलेशी है। जो सलेशी है वह सयोगी है तथा जो अलेशी है वह अयोगी है। योग और लेश्या का पारस्परिक सम्बन्ध क्या है—आगमों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता है।
द्रव्यलेश्या के पुद्गल कैसे ग्रहण किये जाते हैं, यह भी एक विवेचनीय विषय है । द्रव्य मनोयोग तथा द्रव्य वचनयोग के पुद्गल काययोग के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि द्रव्य लेश्या के पुद्गल भी काययोग के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं।
जब जीव मन-अयोगी तथा वचन-अयोगी होता है उस समय वह कियदंश में भी अलेश्यत्व को प्राप्त होता है या नहीं-यह विचारणीय विषय है। यदि नहीं हो तो यह सिद्ध हो जाता है कि लेश्या का काययोग के साथ सम्बन्ध है और जब अर्धकाय योग का निरोध होता है तभी जीव अलेश्यत्व को प्राप्त होता है।
लेश्या की दो प्रक्रियायें हैं-(१) द्रव्यलेश्या के पुद्गलों का ग्रहण तथा (२) उनका प्रायोगिक परिणमन । जब योग का निरोध प्रारम्भ होता है उस समय से लेश्या द्रव्यों का ग्रहण भी बंद हो जाना चाहिये तथा योग निरोध की संपूर्णता के साथ-साथ पूर्वकाल में गृहीत तथा अपरित्यक्त द्रव्य लेश्या के पुद्गलों का प्रायोगिक परिणमन भी सम्पूर्णतः बन्द हो जाना चाहिये। "६६ १८ लेश्या और कर्म :____ कर्म और लेश्या शाश्वत भाव हैं। कर्म और लेश्या पहले भी हैं, पीछे भी हैं, अनानुपूर्वी हैं। इनका कोई क्रम नहीं है । न कर्म पहले है, न लेश्या पीछे है ; न लेश्या पहले है, न कर्म पीछे। दोनों पहले भी हैं, पीछे भी हैं, दोनों शाश्वत भाव हैं, दोनों अनानुपूर्वी हैं । दोनों में आगे-पीछे का क्रम नहीं है ( देखो ६४ )। भावलेश्या जीवोदय निष्पन्न है (देखो '५२.५)।
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