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लेश्या-कोश
२६७ में, नैरयिकादि ४ गतियों में, ज्ञानावरणीय आदि आठ कमों में, कृष्णादि छओं लेश्याओं में, सम्यग्दृष्टि आदि तीन दृष्टियों में, चक्षुदर्शनादि चार दर्शनों में, आभिनिबोधिकज्ञानादि ५ ज्ञानों में, मतिअज्ञान आदि ३ अज्ञानों में, आहारादि ४ संज्ञाओं में, औदारिकादि ५ शरीरों में, मनोयोग आदि ३ योगों में, साकारोपयोग, अनाकारोपयोग में वर्तता हुआ जीव तथा जीवात्मा एक ही है-भिन्न-भिन्न नहीं है।
इसके विपरीत अन्यतीर्थियों की जो प्ररूपणा है उसका भगवान् ने यहाँ निराकरण किया है।
प्राणातिपात आदि भाव विभावों, छओं लेश्याओं यावत् अनाकार उपयोग में विचरण करता हुआ जीव अन्य है, जीवात्मा अन्य है-अन्य तीथियों का यह कथन गलत है। भगवान् महावीर कहते हैं कि वास्तविक सत्य यह है कि प्राणातिपात यावत् छओं लेश्याओं यावत् अनाकार उपयोग आदि भाव-विभावों में विचरण करता हुआ जीव वही है, जीवात्मा वही है। दोनों अभिन्न हैं।
___ सांख्यादि मतों के अनुसार भाव-विभावों में विचरण करता हुआ जीव (प्रकृति) अन्य है तथा जीवात्मा (पुरुष ) अन्य है-इसका निराकरण करते हुए भगवान् कहते हैं कि दोनों अन्य-अन्य नहीं हैं।
'६६ ११ ( सलेशी ) रूपी जीव का अरूपत्व में तथा ( अलेशी ) अरूपी जीव का रूपत्व में
विकुर्वणः
देवे गं भंते ! महिड्डिए, जाव महेसक्खे पुव्वामेव रूवी भवित्ता पभू अरूविं विउवित्ता णं चिट्ठित्तए ? नो इण? सम?, से केणढणं भंते ! एवं वुञ्चइ- देवेणं जाव नो पभू अरूविं विउव्वित्ता णं चिट्ठित्तए ? गोयमा ! अहमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि, मए एयं नायं, मए एयं दि8, मए एयं बुद्ध, मए एयं अभिसमन्नागयं-जण्णं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स, सकम्मस्स, सरागस्स, सवेयस्स, समोहस्स, सलेसस्स, ससरीरस्स, ताओ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स एवं पन्नायइ, तं जहा- कालत्ते वा, जाव-सुकिलत्ते वा, सुन्भिगंधत्ते वा, दुब्भिगंधत्ते वा, तित्ते वा, जाव-महुरत्ते वा, कक्खडत्ते वा, जाव लुक्खत्ते वा से तेण?णं गोयमा ! जाव चिट्ठित्तए। ।
-भग० श १७ । उ २ । प्र १० । पृ० ७५६-५७ महर्द्धिक यावत् महाक्षमतावाले देव भी रूपत्व अवस्था से अरूपी रूप ( अमूर्तरूप ) का निर्माण करने में समर्थ नहीं हैं ; क्योंकि रूपवाला, कर्मवाला, रागवाला, वेदवाला,
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