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लेश्या-कोश जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाणि एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सयाणि भाणियव्वाणि । नवरं चरम-अचरमवज्जा नव उद्द सगा भाणियव्वा, सेसं तं चेव । एवं एयाई बारस एगिदियसेढीसयाई ।
-भग० श० ३४ । श६ से १२ । पृ० १२४-२५ कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में जैसा औधिक उद्देशक में कहा वैसा समझना।
अनंतरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में जैसा अनंतरोपपन्न औधिक उद्देशक में कहा वैसा समझना ।
परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के अर्थात् परंपरोपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक पृथ्वीकायिक यावत् परंपरोपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक वनस्पतिकायिक होते हैं। इनमें प्रत्येक के पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त बादर, अपर्याप्त बादर चार भेद होते हैं। परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक अपर्याप्तसूक्ष्म पृथ्वीकायिक की श्रेणी तथा क्षेत्र की अपेक्षा विग्रह गति के पद आदि औधिक उद्देशक में जैसा कहा वैसा रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी के पूर्व लोकांत से यावत् लोक के चरमांत तक समझना । सर्वत्र कृष्णलेशी भवसिद्धिक में उपपात कहना। परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिकों के स्थान कहाँ कहे हैं-इस अभिलाप से औधिक उद्देशक में जैसा कहा वैसा स्थान पद से यावत् तुल्यस्थिति तक समझना। इस अभिलाप से जैसा प्रथम श्रेणी शतक में कहा वैसे ही छठे श्रेणी शतक के ग्यारह उद्देशक कहने ।
इसी प्रकार नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में सप्तम श्रेणी शतक कहना।
इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में अष्टम श्रेणी शतक कहना।
जैसे भवसिद्धिक के चार शतक कहे वैसे ही अभवसिद्धिक के चार शतक कहने लेकिन अभवसिद्धिक में चरम-अचरम को छोड़कर नौ उद्देशक ही कहने ।
८६ सलेशी जीव और अल्पबहुत्व :'८९१ औधिक सलेशी जीवों में अल्पबहुत्व :--
(क) एएसि णं भंते ! जीवाणं सलेस्साणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साणं अलेस्साणं य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?
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