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लेश्या - कोश
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छठे बंधु ने ऋजुता भरी बोली में सबको समझाया क्यों बिचारे पेड़ को काटते हो, बाढ़ते हो, तोड़ते हो, झकझोरते हो ! देखो ! जमीन पर आगे से ही अनेक पके पकाये फल स्वयं निपतित होकर पड़े हैं । उठाओ और खाओ । व्यर्थ में वृक्ष को कोई क्षति क्यों पहुँचाते हो ।
६७२ ग्रामघातक दृष्टान्त
चोरा गामवहत्थं, विणिग्गया एगो बेंति घारह । जं पेच्छह सव्वं वा दुपयं च चउप्पयं वावि ॥
ओ माणुस पुरिसे य, तइओ साउहे चउत्थे य । पंचमओ जुज्यंते, छट्टो पुण तत्थिमं भणइ || एक्कं ता हरह धणं, बीयं मारेह मा कुणह एयं । केवल हरह घणंती, उवसंहारो इमो तेसिं ॥ सव्वे माह ती, वट्टर सो किण्हलेसपरिणामो | एवं कमेण सेसा, जा चरमो सुक्कलेसाए || - आव० अ ४ । सू ६ | हारि० टीका छः डाकू किसी ग्राम को लूटने के लिये जा रहे थे । छओं के मन में लेश्याजनित अपने-अपने परिणामों के अनुसार भिन्न-भिन्न विचार जागृत हुए । उन्होंने ग्राम को लूटने के लिए अलग-अलग विचार रखे- उनसे उनके लेश्या परिणामों का अनुमान किया जा सकता है।
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प्रथम डाकू का प्रस्ताव रहा कि जो कोई मनुष्य या पशु अपने सामने आवे - सबको मार देना चाहिए ।
द्वितीय डाकू ने कहा - पशुओं को मारने से क्या लाभ ? मनुष्यों को मारना चाहिए जो अपना विरोध कर सकते हैं ।
तृतीय डाकू ने सुझाया — स्त्रियों का हनन मत करो, दुष्ट पुरुषों का ही हनन करना चाहिए ।
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चतुर्थ डाकू का प्रस्ताव था कि प्रत्येक पुरुष का हनन नहीं करना चाहिए ? जो पुरुष शस्त्र सज्जित हों उन्हीं को मारना चाहिए ।
पंचम डाकू बोला - शस्त्र सहित पुरुष भी यदि अपने को देखकर भाग जाते हैं तो उन्हें नहीं मारना चाहिए । सशस्त्र पुरुष जो सामना करे उनको ही मारो।
छठे डाकू ने समझाया कि अपना मतलब धन लूटने से है तो धन लूटें, मारें क्यों ? दूसरे का धन छीनना तथा किसी को जान से मारना- दोनों महादोष हैं । लूट लें लेकिन मारें किसी को नहीं ।
अतः अपने
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