________________
लेश्या - कोश
२५५
इसके बाद के श्लोक भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए पठनीय हैं। जीव किस लेश्या में कितने समय तक रहता है, इसका वर्णन जैन दर्शन में पल्योपम, सागरोपम आदि कालगणना शब्दों में बताया गया है ( देखो ६४ ) तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में जीव कितने 'विसर्ग' तक किस वर्ण में रहता है इसका वर्णन महाभारतकार व्यासदेव ने किया है । उन्होंने विसर्ग को विस्तार से समझाया है, क्योंकि वैदिक परम्परा के लिए यह एक अज्ञात बात थी जबकि जैन साहित्य में पल्योपम, सागरोपम आदि काल-गणना की पद्धति सुप्रसिद्ध है ।
संहार - विक्षेप सहस्र कोटीस्तिष्ठति जीवाः प्रचरन्ति चान्ये । प्रजाविसर्गस्य च पारिमाण्यं वापीसहस्राणि बहूनि दैत्य || वाप्यः पुनर्योजन विस्तृतास्ताः क्रोशं च गंभीरतयाऽवगाढाः । आयामतः पंचशताश्च सर्वाः प्रत्येकशो योजनतः प्रवृद्धाः ॥ वाया जलं क्षिप्यति बालकोट्या त्वह्ना सकृच्चाप्यथ न द्वितीयम् । तासां क्षये विद्धि परं विसर्ग संहारमेकं च तथा प्रजानाम् ॥
- महा० शा ० पर्व | अ २८० । श्लो ३०-३२ सनत्कुमार वृत्र को कहते हैं, "हे दैत्य ! प्रजाविसर्ग का परिमाण हजारों बावड़ी ( तालाब ) जितना होता है । यह बावड़ी एक योजन जितनी चौड़ी, एक कोश जितनी गहरी तथा पाँच सौ योजन जितनी लम्बी है तथा उत्तरोत्तर एक दूसरी से एक-एक योजन बड़ी है । अब यदि एक केशाय ( बाल के किनारे ) से एक बावड़ी के जल को कोई दिनभर में एक ही बार उलीचे, दूसरी बार नहीं तो इस प्रकार उलीचने से उन सारी बावड़ियों का जल जितने समय में समाप्त हो सकता है, उतने ही समय में प्राणियों की सृष्टि और संहार के क्रम की समाप्ति हो सकती है ।"
समय की यह कल्पना जैनों के व्यवहार पल्योपम समय से मिलती-जुलती है।
जैन दर्शन के अनुसार परम कृष्णलेश्या वाले सप्तम पृथ्वी के नारकी जीव की उत्कृष्ट महाभारत के अनुसार कृष्णवर्णवाले जीव अनेक
स्थिति तैंतीस सागरोपम की होती है । प्रजाविसर्ग काल तक नरकवासी होते हैं ।
कृष्णस्य वर्णस्य गतिर्निकृष्टा स सज्जते नरके पच्यमानः । स्थानं तथा दुर्गतिभिस्तु तस्य प्रजाविसर्गान् सुबहून् वदन्ति ॥
- महा० शा ० पर्व । अ २८० । श्लो ३७ कृष्णवर्ण की गति निकृष्ट होती है और वह अनेकों प्रजाविसर्ग ( कल्प ) काल तक नरक भोगता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org