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लेश्या-कोश
२६३ सम्बन्ध रूप अर्थ नहीं है ] 'तद्रूपतया'-'नीललेश्या के रूप में, 'तवर्णतया' नीललेश्या के वर्ण में, 'तद्गन्धतया' नीललेश्या की गन्ध में, 'तद्रसतया' नीललेश्या के रस में, 'तद्स्पर्शतया' नीललेश्या के स्पर्श में, बारम्बार परिणमन नहीं करते हैं।
__ भगवान् उत्तर देते हैं-हे गौतम ! 'अवश्य कृष्णलेश्या नीललेश्या में परिणमन नहीं करती है।' अब प्रश्न उठता है कि सातवीं नरक पृथ्वी में तब सम्यक्त्व की प्राप्ति कैसे होती है ? क्योंकि जब तेजोलेश्यादि शुभ लेश्या के परिणाम होते हैं, तब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तथा सातवीं नरक पृथ्वी में कृष्णलेश्या ही होती है। तथा 'भाव की परावृत्ति होने से देव तथा नारकियों के भी छः लेश्याएँ होती हैं', यह वाक्य कैसे घटेगा ? क्योंकि अन्य लेश्या द्रव्यों के सम्बन्ध से यदि तद्रूप परिणमन असंभव है तो भाव की परावृत्ति नहीं हो सकती। अतः गौतम फिर से प्रश्न करते हैं-भगवन् ! आप यह किस अर्थ में कहते हैं ? भगवान उत्तर देते हैं कि उक्त स्थिति में आकारभावमात्र- छायामात्र परिणमन होता है अथवा प्रतिभाग-प्रतिबिम्ब मात्र परिणमन होता है। वहाँ कृष्णलेश्या प्रतिबिम्ब मात्र में नीललेश्या रूप होती है। लेकिन वास्तविक रूप में तो वह कृष्णलेश्या ही है, नीललेश्या नहीं है ; क्योंकि वह स्व स्वरूप का त्याग नहीं करती है । जिस प्रकार दर्पण में जवाकुसुम आदि का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह दर्पण जवाकुसुम रूप नहीं होता, केवल उसमें जवाकुसुम का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। इसी प्रकार लेश्या के सम्बन्ध में जानना ।
इसी प्रकार अवशेष पाठ जानने ।
यह सूत्र पुस्तकों में साक्षात् नहीं मिलता, लेकिन केवल अर्थ से जाना जाता है; क्योंकि इस रीति से मूल टीकाकार ने व्याख्या की है। इस प्रकार देव और नारकियों के लेश्या द्रव्य अवस्थित हैं। फिर भी उनकी लेश्या अन्यान्य लेश्याओं को ग्रहण करने से अथवा दूसरी-दूसरी लेश्या के द्रव्यों से सम्बन्ध होने से उस लेश्या का आकारभावमात्र धारण करती है। अतः प्रतिबिम्ब भावमात्र भाव की परावृत्ति होने से छः लेश्या घटती है ; उससे सातवीं नरक पृथ्वी में सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है-इस कथन में कोई दोष नहीं आता है।
"EE८ चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारा की लेश्याएँ :
बहिया णं भंते ! मणुस्सखेत्तस्स ते चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवा ते णं भंते ! देवा किं उड्ढोववण्णगा xxx दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा सुहलेस्सा सीयलेस्सा मन्दलेस्सा मंदायवलेस्सा चित्तंतरलेसागा कूडा इव ठाणाट्ठिता अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं ते पदेसे सव्वओ समंता ओभासेंति उज्जोवेति तवंति पभासेंति ।
-जीवा. प्रति ३ । उ २ । सू १७६ । पृ० २१६-२२०
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