________________
१६६
लेश्या - कोश
कृष्णलेशी एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के होते हैं, यथा- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक | कृष्णलेशी पृथ्वीकायिक दो प्रकार के होते हैं, यथा - सूक्ष्म तथा बादर पृथ्वीकायिक । कृष्णलेशी सूक्ष्म पृथ्वीकायिक दो प्रकार के होते हैं, यथा - पर्याप्त तथा अपर्याप्त पृथ्वीकायिक । इसीप्रकार कृष्णलेशी बादर पृथ्वीकायिक के पर्याप्त तथा अपर्याप्त दो भेद होते हैं । इसीप्रकार कृष्णलेशी वनस्पतिकायिक तक चार-चार भेद जानने ।
1
कृष्णलेशी अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के आठ कर्मप्रकृतियाँ होती हैं । वह सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधता है । चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदता है । इसीप्रकार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक कहना । प्रत्येक के अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त बादर, पर्याप्त बादर इस प्रकार चार-चार भेद कहने ।
अनन्तरोपपन्न कृष्णलेशी एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के होते हैं, यथा- पृथ्वीका यिक यावत् वनस्पतिकायिक । तथा प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर दो-दो भेद होते हैं । अनंतरोपपन्न कृष्णलेशी एकेंद्रिय जीव के आठ कर्म प्रकृतियाँ होती हैं । वे आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं और चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं ।
परम्परोपपन्न कृष्णलेशी एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के होते हैं - पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक | प्रत्येक के चार-चार भेद कहने । परम्परोपपन्न कृष्णलेशी एकेन्द्रिय के सर्व भेदों में आठ प्रकृतियाँ होती हैं । वे सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियाँ बाँधते है तथा चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं ।
अनंतरोपपन्न की तरह अनंतरावगाढ़, अनंतराहारक, अनंतरपर्याप्त कृष्णलेशी एकेन्द्रिय के सम्बंध में भी जानना । परम्परोपपन्न तरह परम्परावगाढ़, परम्पराहारक, परम्परपर्याप्त चरम तथा अचरम कृष्णलेशी एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में कहना ।
जैसा कृष्णलेशी का शतक कहा वैसा ही नीललेशी एकेन्द्रिय तथा कापोतलेशी एकेन्द्रिय जीव का शतक कहना ।
• ७८२ सलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय और कर्मप्रकृति का सत्ता- बंधन-वेदन : -
कइविहाणं भंते! कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिंदिया पन्नत्ता, तंजहा - पुढविकाश्या जाव वणरसइकाइया | कण्हले सभव सिद्धिय पुढविक्काइया णं भंते! कइविहा पन्नता ? गोमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा - सुहुमपुढविकाइया य बादरपुढविकाइया य । कण्हलेस्सभवसिद्धियसुहुमपुढविकाइया णं भंते! कइविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । एवं बायरा बि । एवं एएणं अभिलाषेणं तदेव चउक्कओ भेदो भाणियव्वो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org