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लेश्या - कोश
लेश्या स्थान से संक्लिष्ट होते-होते कृष्णलेश्या में परिणमन करके जीव कृष्णलेशी नारक में उत्पन्न होता है। लेश्या स्थान से संक्लिष्ट होते-होते या विशुद्ध होते-होते नीललेश्या में में परिणमन करके नीललेशी नारक में उत्पन्न होता है ।
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द्रव्यलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो द्रव्यलेश्या के असंख्यात् स्थान है तथा वे स्थान पुद्गल की मनोज्ञता - अमनोज्ञता, दुर्गन्धता-सुगन्धता, विशुद्धता - अविशुद्धता तथा शीतरूक्षता - स्निग्धउष्णता की हीनाधिकता की अपेक्षा कहे गये हैं ।
भावलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो एक-एक लेश्या की विशुद्धि अविशुद्धि की हीनाधिकता से किये गये भेद रूप स्थान – कालोपमा की अपेक्षा असंख्यात् अवसर्पिणी उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं अथवा क्षेत्रोपमा की अपेक्षा असंख्यात् लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने भावलेश्या के स्थान होते हैं ।
भावलेश्या के स्थानों के कारणभूत कृष्णादि लेश्या द्रव्य हैं। द्रव्यलेश्या के स्थान के बिना भावलेश्या का स्थान बन नहीं सकता है । जितने द्रव्यलेश्या के स्थान होते हैं उतने ही भावलेश्या के स्थान होने चाहिये ।
प्रज्ञापना के टीकाकार श्री मलयगिरि ने प्रज्ञापना का विवेचन द्रव्यलेश्या की अपेक्षा माना है तथा उत्तराध्ययन का विवेचन भावलेश्या की अपेक्षा माना 1
- २२ द्रव्यलेश्या की स्थिति
२२.१ कृष्णलेश्या की स्थिति ।
मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तेत्तीसं सागरा मुहुत्तहिया | कोसा होइ ठिई, नायव्त्रा कण्हलेसाए ||
- उत्त० अ ३४ । गा ३४ | पृ० १०४७
कृष्णलेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट मुहुर्त अधिक तेतीस सागरोपम
की होती है ।
२२.१ नीललेश्या की स्थिति ।
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तद्धं तु जहन्ना, दसउदही पलियमसंखभागमब्भहिया । उक्कोसा नीललेसाए ||
होइ ठिई,
नायव्वा
-- उत्त• अ ३४ । गा ३५ | पृ० १०४७
नीलेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूत और उत्कृष्ट तीन पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दससागरोपम की होती है ।
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