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में उत्पत्ति नहीं होती ।
शेष रहने पर जीव परलोक में जाता है ।
लेश्या - कोश
लेश्या की परिणति के बाद अन्तर्मुहूर्त बीतने पर और अन्तर्मुहूर्त
'५७२ मरण काल में लेश्या - ग्रहण और उत्पत्ति के समय की लेश्या
जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएस उववज्जित्तर से णं भंते ! किं लेसेसु उववज्जइ ? गोयमा ! जल्लेसाई' दव्वाई परिआइत्ता कालं करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा - कण्हलेसेसु वा नीललेसेसु वा काऊलेसेसु वा एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियव्वा ।
जाव- जीवे णं भंते! जे भविए जोइसिएस उववज्जित्तए पुच्छा ? गोयमा ! जल्ले साईं दव्वाइं परिआइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तंजहातेलेसेसु ।
जीणं भंते! जे भविए वैमाणिएस उववज्जित्तए से णं भंते! किं लेसेसु उज्जइ ? गोयमा ! जल्लेसाई दव्बाइ परिआइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तंजा - तेऊलेसेसु वा, पम्हलेसेसु वा, सुकलेसेसु वा ।
-भग० श ३ । उ४ । प्र १७-१६ | पृ० ४५६ | जो जीव नारकियों में उत्पन्न होने योग्य है वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है उसी लेश्या में जाकर उत्पन्न होता है, यथा-कृष्ण लेश्या में, नील लेश्या में अथवा कापोत लेश्या में । यावत् दण्डक के ज्योतिषी जीवों के पहले तक ऐसा ही कहना । अर्थात् जिसके जो लेश्या हो उसके वह लेश्या कहनी ।
जो जीव ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने योग्य है वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है उसी लेश्या में जाकर उत्पन्न होता है; अर्थात् तेजोलेश्या में । जो जीव वैमाणिक देवों में उत्पन्न होने योग्य है वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है उसी लेश्या में जाकर उत्पन्न होता है; यथा तेजोलेश्या में, पद्मलेश्या में अथवा शुक्ललेश्या में, अर्थात् जिसके जो लेश्या हो उसके वह लेश्या कहनी ।
दuse के अन्तिम सूत्र को दिखाने के निमित्त पूर्वोक्त सूत्र ( जाव --- जीवे णं भंते इत्यादि) कहा गया है। टीकाकार का कथन है कि यदि ऐसा ही था तो फिर केवल वैमानिक का सूत्र ही कहना चाहिये था फिर ज्योतिषी तथा वैमानिक के सूत्र अलग-अलग क्यों कहे ? वैमानिक और ज्योतिषियों की लेश्या उत्तम होती है यह दिखाने के निमित्त ही दोनों के सूत्र अलग-अलग कहे गए हैं । अथवा ऐसा करने का कारण सूत्रों की विचित्र गति हो सकती है।
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