________________
१२८
श्या-कोश
'५८१६४ पंकप्रभापृथ्वी के नारकी से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में
गमक- १-६ : पंकप्रभापृथ्वी के नारकी से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जो जीव हैं (देखो पाठ ५८१६३ ) उनमें नौ गमकों में ही एक नीललेश्या होती है ( *५३°५ )
- भग० श २४ | उ २१ । प्र २ । पृ० ८४४ योग्य जीवों में :
'५८१६५ धूमप्रभापृथ्वी के नारकी से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने गमक- १-६ : धूमप्रभापृथ्वी के नारकी से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जो जीव हैं ( देखो पाठ ५८१६०३ ) उनमें नौ गमकों में ही कृष्ण और नील दो लेश्या होती हैं ( '५३°६ ) ।
- भग० श २४ । उ २१ । प्र २ | पृ० ८४४ ‘५८’१६'६ तमप्रभापृथ्वी के नारकी से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :-- गमक-- १-६ : तमप्रभापृथ्वी के नारकी से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जो जीव हैं (देखो पाठ ५८१६३) उनमें नौ गमकों में ही एक कृष्णलेश्या होती है ( ५३७ ) ।
-भग० श २४ । उ२१ । प्र २ | पृ० ८४४ *५८`१६७ पृथ्वीकायिक जीवों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :गमक- १-६ : पृथ्वीकायिक जीवों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जो जीव हैं ( पुढविक्काइए णं भंते! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए × × × ते णं भंते ! जीवा० ? एवं जहेव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस्स पुढविक्काइस्स वतव्वया सा चैव इह वि उववज्जमाणस्स भाणियव्वा णवसु वि गमएस XXX से सं तं वेव निरवसेसं ) उनमें प्रथम के तीन गमकों में चार लेश्या, मध्यम के तीन गमकों में तीन लेश्या तथा शेष के तीन गमकों में चार लेश्या होती हैं ( ५८१८८५८१०१) । -भग० श २४ | उ २१ । प्र ४-५ | पृ० ८४४ ५८१६८ अकायिक जीवों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में :
गमक - १-६ : अप्कायिक जीवों से मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जो जीव हैं ( पुढ विकाइए णं भंते! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए x x x ते णं भंते ! जीवा० ? एवं जहेव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस्स पुढविक्काइयस्स वक्तव्या सा चेव इह वि उववज्जमाणस्स भाणियव्वा णवसु वि गमए । xxx एवं आउकायाण वि । एवं वणस्सइकायाण वि । एवं जाव - चउरिंदियाण वि XXX ) उनमें प्रथम के तीन गमकों में चार लेश्या, मध्यम के तीन गमकों में तीन लेश्या तथा शेष के तीन गमकों में चार लेश्या होती हैं ( ५८ १८६५८१०२ ) ।
- भग० श २४ | उ २१ । प्र ४-६ । पृ० ८४५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org