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लेश्या-कोश '४४ लेश्या-स्थान
(क) केवइया णं भंते ! कण्हलेस्सा ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा! असंखेज्जा कण्हलेस्साठाणा पन्नत्ता, एवं जाव सुक्कलेस्सा ।
-पण्ण० प १७ । उ ४ । सू ५० । पृ० ४४६ (ख) अस्संखिज्जाणोसप्पिणीण उस्सप्पिणीण जे समया वा। संखाईया लोगा, लेसाण हवन्ति ठाणाई ।।
-उत्त० अ ३४ । गा ३३ । पृ० १०४७ कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के असंख्यात् स्थान होते हैं। असंख्यात् अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी में जितने समय होते हैं तथा असंख्यात् लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने लेश्याओं के स्थान होते हैं।
(ग) लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु २ कण्हलेसं परिणमइ २ त्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति xxx-लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु नीललेस्सं परिणमइ २ त्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति।
-भग० श १३ । उ १ । म १९-२० का उत्तर । पृ० ६७६ लेश्या स्थान से संक्लिष्ट होते-होते कृष्णलेश्या में परिणमन करके कृष्णलेशी नारकी में उत्पन्न होता है। लेश्यास्थान से संक्लिष्ट होते-होते या विशुद्ध होते-होते नीललेश्या में परिणमन करके नीललेशी नारकी में उत्पन्न होता है।
___ भावलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो एक-एक लेश्या की विशुद्धिअविशुद्धि के हीनाधिकता से किये गये भेद रूप स्थान-कालोपमा की अपेक्षा असंख्यात् अवसर्पिणो-उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं तथा क्षेत्रोपमा की अपेक्षा असंख्यात् लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने भावलेश्या के स्थान होते हैं।
द्रव्यलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो द्रव्यलेश्या के असंख्यात् स्थान है तथा वे स्थान पुद्गल की मनोज्ञता-अमनोज्ञता, दुर्गन्धता-सुगन्धता, विशुद्धता-अविशुद्धता, शीतरुक्षता-स्निग्धउष्णता की हीनाधिकता की अपेक्षा कहे गये हैं।
भावलेश्या के स्थानों के कारणभूत कृष्णादि लेश्याद्रव्य हैं। द्रव्यलेश्या के स्थान के बिना भावलेश्या का स्थान बन नहीं सकता है। जितने द्रव्यलेश्या के स्थान होते हैं उतने ही भावलेश्या के स्थान होने चाहिए ।
प्रज्ञापना के टीकाकार श्री मलयगिरि ने प्रज्ञापना का विवेचन द्रव्यलेश्या की अपेक्षा माना है तथा उत्तराध्ययन का विवेचन भावलेश्या की अपेक्षा माना है।
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