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लेश्या-कोश (ख) भावे उदओ भणिओ, छण्हं लेसाण जीवेसु ।
-उत्त० अ ३४ । नि• गा ५४२ उत्तरार्ध (ग) भावादो छल्लेस्सा ओदयिया होंति xxxi
-गोजी० गा ५५४ । पृ० २०० कृष्णलेश्या यावतू शक्ललेश्या जीवोदय निष्पन्न भाव है। ४६.२ भावलेश्या और पाँच भाव
आगमों में प्राप्त पाठों के अनुसार लेश्या औदयिक भाव में गिनाई गई है। उपशमक्षय-क्षयोपशम-भावों में लेश्या होने के पाठ उपलब्ध नहीं है। उत्तराध्ययन की नियुक्ति का एक पाठ है। (क) दुविहा विसुद्धलेस्सा, उपसमखइआ कसायाणं ।
-उत्त० अ ३४ | नि० गा ५४० उत्तरार्ध तत्र द्विविधा विशुद्धलेश्या... उपसमखइय त्ति सूत्रत्वादुपशमक्षयजा, केषां पुनरुपशमक्षयौ ? यतो जायत इयमित्याह--कषायाणाम् , अयमर्थः कषायोपशमजा कषायक्षयजा च, एकान्त-विशुद्धि चाऽऽश्रित्यैवमभिधानम् , अन्यथा हि क्षायोपशमिक्यपि शुक्ला तेजः पद्मे च विशुद्धलेश्ये सम्भवतः एवेति ।
–उपर्युक्त नियुक्ति गाथा पर वृत्ति विशुद्धलेश्या द्विविध-औपशमिक और क्षायिक। यह उपशम और क्षय किसका ? कषायों का। अतः कषाय औपशमिक और कषाय क्षायिक। यह एकांत विशुद्धि की अपेक्षा कहा गया है अन्यथा क्षायोपशमिक भाव में भी तीनों विशुद्धलेश्या सम्भव है।
गोम्भरसार जीवकांड में भी एक पाठ है। (ख) मोहुदय खओवसमोवसमखयज जीवफंदणं भावो ।
-गोजी० गा० ५३५ उत्तरार्ध मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षय से जो जीव के प्रदेशों की चंचलता होती है उसको भावलेश्या कहते। अर्थात् चारों भावों के निष्पन्न में लेश्या होती है।
पारिणामिक भाव जीव तथा अजीव सभी द्रव्यों में होता है। लेश्या शास्वत भाव है ( देखो विविध )।
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