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'० शब्द - विवेचन
०१ व्युत्पत्ति
'०१/१ प्राकृत शब्द 'लेश्या' की व्युत्पत्ति
रूप लेसा, लेस्सा।
लिंग = स्त्रिलिंग |
धातु - लिस् (स्वप ) सोना, शयन करना | लिस् ( श्लिष्) आलिंगन करना ।
लिस (देखो लिस्) (शिल ) लिस्संति ।
पाइ० पृष्ठ ६०२
इसमें लेस्सा पारिभाषिक शब्द के मूल धातु का संकेत नहीं है । श्लिष भाव लिया जाय तो 'लिस्स' धातु से लिस्सा तथा ल की इ का विकार से ए-लेस्सा शब्द बन सकता है । टीकाकारों ने "लिश्यते - श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनयेति लेश्या" ऐसा अर्थ ग्रहण किया है । अतः लिस्स को ही 'लेस्सा' का मूल धातु रूप मानना चाहिये ।
यदि संस्कृत शब्द लेश्या का प्राकृत रूप 'लेस्सा' बना ऐसा माना जाय तो लेश्या शब्द के 'श' का दंती 'स' में विकार, य का लोप तथा स का द्वित्व; इस प्रकार लेस्सा शब्द बन सकता है, यथा- वेश्या से वेस्सा |
यदि लेश्या का पारिभाषिक अर्थ से भिन्न अर्थ तेज, ज्योति, आदि लिया जाय तो ‘लस' धातु से लेस्सा शब्द की व्युत्पत्ति उपयुक्त होगो । 'लस' का अर्थ पाइ० में चमकना अर्थ भी दिया है अतः तेज ज्योति अर्थ वाला लेस्सा शब्द इससे ( लस धातु से ) व्युत्यन्न किया जा सकता है ।
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'० १/२ संस्कृत 'लेश्या' शब्द की व्युत्पत्ति
लिश् धातु में यत्+टाप् प्रत्ययों से लेश्या शब्द की व्युत्पत्ति बनती है। (क) लिश् धातु से दो रूप बनते हैं - (१) लिशति, (२) लिश्यति ।
लिशति = जाना, सरकना ।
लिश्यति = छोटा होना, कमना ।
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