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लेश्या - कोश
.५ भावलेश्या उदय निष्पन्न भाव है ।
से किं तं जीवोदय निफन्ने ? अणेगविहे पन्नते, तं जहा - णेरइए x x पुढबिकाइए जाव तसकाइए, कोहकसाई जाव लोहकसाई x x x कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से XXX संसारत्थे असिद्ध, से तं जीवोदय निफन्ने ।
-- अणुओ ० सू १२६ । पृ० ११११
.६ भावलेश्या परस्पर में परिणमन करती है ।
गोमा ! ( कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से मासु २, कण्हलेस्सं परिणमइ कण्हलेस्सं उववज्र्ज्जति ।
गोयमा ! ( कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता ) लेस्सट्टाणेसु संकिलिस्समासु वा विसुज्झमाणेसु नीललेस्सं परिणमइ नीललेस्सं परिणमइत्ता नीललेस्से सु नेरइए उववज्र्ज्जति ।
ह
भवित्ता ) लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्सपरिणमइत्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएस
२
. ७ भावलेश्या सुगति-दुर्गति की हेतु है ।
हेतु है।
तओ दुग्गइगामियाओ ( कण्ह, नील, काऊलेस्साओ ) तओ सुग्गइगामियाओ
( तेऊ, पम्ह, सुक्कलेस्साओ ) ।
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-भग० श १३ । उ १ । प्र १६ - २० | पृ० ६७६ अतः कर्म बन्धन में भी किसी प्रकार का
- ०५३ प्राचीन आचार्यों द्वारा की गई लेश्या की परिभाषा :- १ अभयदेवसूरि
- पण्ण० प १७ । उ४ | सू ४७ | पृ० ४४६
:
(क) कृष्णादि द्रव्य सान्निध्य जनितो जीव परिणामो—लेश्या । यदाह :- कृष्णादि द्रव्य साचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्या शब्द प्रयुज्यते ॥
— भग० श १ । उ १ । प्र ५३ की टीका । [ नोट- उपरोक्त पद अनेक प्राचीन आचार्यों ने उद्धृत किया है । 'प्रयुज्यते' की जगह 'प्रवर्तते' शब्द का प्रयोग भी मिलता है । ]
(ख) कृष्णादि द्रव्य साचिव्य जनिताऽऽत्मपरिणामरूपां भावलेश्यां ।
-भग० श १ । उ २ । प्र ६७ की टीका ।
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