________________
देवता और नारको को छोड़ कर सामान्यतः अन्य जीवों के लेश्या परिणाम एक लेश्या से दूसरी लेश्या के परिणाम में अन्तर्मुहूर्त में परिणमित होते रहते हैं। प्रश्न उठता है कि एक लेश्या से जब अन्य लेश्या में परिणमन होता है तो वह क्रमबद्ध होता है अथवा क्रम व्यतिक्रम करके भी हो सकता है।
विषयांकन १६ के पाठों से अनुभूत होता है कि क्रमबद्ध परिणमन हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है । कृष्णलेश्या नीललेश्या के पुद्गलों को प्राप्त होकर नीललेश्या में परिणमन करती है तथा कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या पुद्गलों को प्राप्त होकर उस-उस लेश्या के वर्ण-गंध-रस-स्पर्श रूप में परिणत हो जाती है। ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं मालूम पड़ता है कि कृष्णलेश्या को शुक्ल लेश्या में परिणमन करने के लिये पहिले नील में, फिर कापोत में, फिर क्रम से शुक्ललेश्या में परिणत होना होगा। कृष्णलेश्या शुक्ललेश्या के पुद्गलों को प्राप्त होकर सीधे शुक्ललेश्या में परिणत हो सकती है।
लेश्या आत्मा--आत्मप्रदेशों में ही परिणमन करती है, अन्यत्र नहीं करती है। इससे पता चलता है कि संसारी आत्मा का लेश्या के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है और वह अनादि काल से चला आ रहा है। जीव जब तक अन्तक्रिया नहीं करता है तब तक यह सम्बन्ध चलता रहता है और आत्मा में लेश्याओं का परिणमन होता रहता है ( देखें -२०१७ )।
कृष्ण यावत् शुक्ल लेश्या में विद्यमान'-वर्तता हुआ जीव और जीवात्मा एक हैं, अभिन्न हैं, दो नहीं है । जब जीवात्मा (पर्यायात्मा) लेश्या परिणामों में वर्तता है तब वह जीव यानि द्रव्यात्मा से भिन्न नहीं है, एक है। अर्थात् वही जीव है, वही जीवात्मा है ( देखें '६६.१०)।
रत्नप्रभापृथ्वी के नारकी सब कापोतलेशी होते हैं। उनकी एक वर्गणा कही गई है ( देखें '५२)। लेकिन वे सब समलेशी नहीं हैं ; अर्थात् उनकी लेश्या के स्थान समान नहीं हैं। जो पूर्वोपपन्नक हैं उनकी लेश्या जो पश्चादुपपन्नक हैं उनसे विशुद्धतर है क्योंकि पूर्व में उत्पन्न हुए नारकी ने बहुत से अप्रशस्त लेश्या द्रव्यों का अनुभव किया है तथा अनुभव करके क्षीण किया है। इसलिए वे विशुद्धतर लेश्या वाले हैं तथा पश्चात् उत्पन्न हुए नारकी इसके विपरीत अविशुद्ध लेश्या वाले होते हैं। यह पाठ समान स्थिति वाले नारकी की अपेक्षा से ही समझना चाहिए । (देखें “५६, ६१)।
पूर्वोपपन्नक नारकी की यह लेश्या-विशुद्धि किसी कर्म के क्षय से होती है अथवा जैसा कि टीकाकर कहते हैं कि लेश्या पुद्गलों का अनुभव कर करके लेश्या पुद्गलों का क्षय करने से होती है ? यदि टीकाकार की बात ठीक मानी जाय तो लेश्या के परिणमन तथा उसके ग्रहण और क्षय के साथ कर्मों का सम्बन्ध नहीं बैठता है। यह विषय सूक्ष्मता के साथ विवेचन करने योग्य है।
लेश्या और योग का अविनाभावी सम्बन्ध है। जहाँ लेश्या है वहाँ योग है ; जहाँ योग है वहाँ लेश्या है। फिर भी दोनों भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। भावतः लेश्या परिणाम तथा योगपरिणाम जीव परिणामों में अलग-अलग बतलाये गये हैं। अतः भिन्न हैं। द्रव्यतः मनोयोग तथा वाक्योग के पुदगल चतुःस्पर्शी हैं तथा काययोग के पुद्गल अष्टस्पर्शी स्थूल हैं। लेश्या के पुद्गल अष्टस्पी तो हैं लेकिन सूक्ष्म हैं ; क्योंकि लेश्या के पुद्गलों को भावितात्मा
[ 33 ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org