________________
आत्मा का अस्तित्व : कर्म- अस्तित्व का परिचायक १९
नियताकार नहीं होता। इसलिए उसका कोई कर्त्ता भी नहीं होता । शरीर सादि एवं निश्चित आकार वाला होने से इसका कोई कर्ता होना चाहिए। कर्मों के कारण शरीर का कर्ता आत्मा है । विशेषावश्यक भाष्य आदि में इस अनुमान प्रमाण द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया है । "
२४. शरीरादि के भोक्ता के रूप में आत्मा की अस्तित्व सिद्धिविशेषावश्यक भाष्य में बताया गया है कि जैसे - भोजन-वस्त्रादि पदार्थ भोग्य होते हैं, पुरुष उनका भोक्ता होता है; उसी प्रकार देह आदि भी भोग्य होने से इनका भी कोई भोक्ता होना चाहिए, क्योंकि भोग्य पदार्थ स्वयं अपने आप भोक्ता नहीं होते। अतः शरीरादि का जो भोक्ता है, वही आत्मा है। ईश्वर आदि अन्य कोई शरीरादि का कर्त्ता, भोक्ता अथवा स्वामी (अर्थी) नहीं हो सकता, क्योंकि यह युक्तिविरुद्ध है। अतः आत्मा ही उसका कर्त्ता, भोक्ता या स्वामी है।
२५. आत्मा कथंचित् मूर्तादि रूप है- आत्मा तो नित्य, अमूर्त और (शरीरादि के) असंघातरूप है, फिर वह शरीरादि का कर्त्ता - भोक्ता या स्वामी आदि कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भ. महावीर ने कहा- जो मुक्त आत्मा है, वह तो अमूर्त ही है, लेकिन संसारस्थ आत्मा आठ कर्मों से आवृत तथा सशरीर होने के कारण कथंचित् मूर्त आदि रूप है । '
३
२६. शरीरादि संघातों का स्वामी आत्मा है - विशेषावश्यक भाष्य में सांख्यदर्शन के समान यह तर्क भी प्रस्तुत किया गया है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अंगोपांग आदि संघात रूप होते हैं, इसलिए इनका कोई स्वामी अवश्य होना चाहिए। जो संघातरूप होता है, उसका कोई न कोई स्वामी होता है। जैसे-गृह संघात रूप है, तो उसका स्वामी गृहपति होता है। इसी प्रकार शरीरादि संघातरूप वस्तुओं के प्रत्यक्ष होने से उनके स्वामी का अनुमान अवश्यम्भावी है। अतः कर्मवशात् प्राप्त शरीरादि संघात का जो स्वामी है, वही आत्मा है।
२७. करणरूप इन्द्रियों का अधिष्ठाता : आत्मा - विशेषावश्यक भाष्य में यह भी तर्क समुपस्थित किया गया है कि इन्द्रियाँ करण हैं, इसलिए इनका कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिए, जैसे- दण्ड- चक्र आदि करणों का
१
२
३
४
(क) विशेषावश्यक भाष्य गा. १५६७ (ख) स्याद्वाद मंजरी का. १७
(क) विशेषावश्यक भाष्य गा. १५६९
(ख) षड्दर्शन समुच्चय टीका
विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५७०, (अनुवाद) पृ. १५
विशेषावश्यक भाष्य, १५६९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org