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आत्मा का अस्तित्व : कर्म-अस्तित्व का परिचायक १७
. जैनदार्शनिकों ने इसका निराकरण किया है। उनका कथन है कि जिस प्रकार बादल सूर्य को आच्छादित कर देता है, उसी प्रकार सुषुप्ति अवस्था में दर्शनावरणीय कर्म चैतन्य (ज्ञान) को आच्छादित कर देता है । इसलिए ज्ञान उस समय बाह्य और अन्तरंग विचारों से उसी प्रकार रहित हो जाता है, जिस प्रकार मंत्रादि के द्वारा अग्नि आदि की शक्ति प्रतिबद्ध या अभिभूत कर दी जाती है । मगर सुषुप्ति या मत्त-मूर्खादि अवस्था में भी आत्मा में चेतना सर्वथा लुप्त नहीं हो जाती, वह दर्शनावरणीय आदि कर्मावरण के कारण धुंधली हो जाती है । इसलिए कहना चाहिए कि उस 'समय भी चेतना सूक्ष्म एवं निर्विकल्प रूप में आत्मा में रहती है । दूसरी बात, निद्रावस्था से उठने के बाद मनुष्य को इस प्रकार की स्मृति होती है कि मैं बहुत देर तक सोया, सुख से सोया, इत्यादि । अतः आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । यह अवश्य है कि जागृत-अवस्था में ज्ञान प्रकट रूप में रहता है, जबकि सुषुप्त-अवस्था में अप्रकट रूप में । और ज्ञान तथा सुख का संवेदन करना ही चैतन्य का लक्षण है । यदि सुषुप्त अवस्था में आत्मा में ज्ञान का अस्तित्व नहीं माना जाएगा तो चैतन्य का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा । फिर सुषुप्त अवस्था में चैतन्य का प्रमाण यह भी है कि जिस प्रकार जागृत अवस्था में चैतन्य के होने पर श्वासोच्छ्वास चलना, नेत्र खोलना आदि कियाएँ होती हैं, वैसी सुषुप्त अवस्था में भी होती है । अतः सुषुप्त अवस्था में भी चैतन्य और ज्ञान दोनों आत्मा में रहते हैं । चैतन्य और ज्ञान गुण का अस्तित्व सिद्ध होने से गुणी आत्मा का भी अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। . : . २०. व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद होने से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध-जीव (आत्मा) पद व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद होने से सार्थक (अर्थवाला) है । जो पद सार्थक नहीं (अर्थरहित) होता, वह व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद नहीं होता । जैसे-डित्य, डवित्य आदि पद सार्थक न होने से व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद नहीं हैं। जीव पद व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध है, अतः उसका अर्थ और अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए । जीव पद का अर्थ शास्त्रों और ग्रन्थों में शरीरादि से भिन्न चैतन्य या ज्ञान से युक्त जन्तु, प्राणी, भूत, सत्व, आत्मा, चेतन आदि है। इससे भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। है (क) तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/१/५
(ख) तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक १/२३५-२३६-२३७ (ग) न्यायकुमुदचन्द्र पृ.८४७
(घ) प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. ३२३ २ (क) विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १५७५ (अनुवाद) पृ. १९ (ख) स्याद्वादमंजरी का. १७ (ग) सत्य शासन-परीक्षा (आ. विद्यानन्द) पृ. १५
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