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52 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
सम्मेदशिखर पर जाकर शुक्लध्यान धारण करके मोक्षगामी हुए। 3. संभवनाथ जी :
तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ जी हुए। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में श्रावस्ती नगर के राजा दृढ़राज्य तथा उनकी महारानी सुषेणा के यहाँ तीर्थंकर संभवनाथजी का जन्म हुआ। महारानी सुषेणा ने फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन प्रातःकाल मृगशिरा नक्षत्र में पुण्योदय से चौदह महा स्वप्न देखे और अन्त में सुमेरुपर्वत के शिखर के समान आकार वाला शुभलक्षणा हस्ती को मुख में प्रवेश करते देखा। उसी दिन संभवनाथजी का जीव माता के गर्भ में आया। नौवें माह में कार्तिक शुक्ला पूर्णमासी के दिन मृगशिरा नक्षत्र, सौम्य योग में तीन ज्ञानों से युक्त संभवनाथ जी का जन्म हुआ और देवों ने सुमेरुपर्वत पर ले जाकर उनका जन्माभिषेक करके संभवनाथ नामकरण किया।
द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ तथा संभवनाथ जी के निर्वाण का अन्तरकाल तीस लाख कोटि सागरोपम था। उनकी आयु साठ लाख पूर्व की थी। उनका शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था। उनकी आयु का एक चौथाई भाग बीत जाने पर उन्हें राज्य का सुख प्राप्त हुआ। साम्राज्य भोग करते 44 लाख पूर्व और चार पूर्वांग व्यतीत होने पर उन्हें वैराग्य हुआ। दीक्षा पर्याय चार पूर्वांग (336 लाख वर्ष) कम एक लाख पूर्व की
थी।
संभवनाथ जी को दीक्षा लेते ही मनः पर्याय ज्ञान हो गया। उसके पश्चात् वे 14 वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते रहे। उसके पश्चात् शाल्मली वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्णा चतुर्थी को शाम के समय मृगशिरा नक्षत्र में उन्हें अनन्त चतुष्टय रूप केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
धर्म परिवार : तीर्थंकर संभवनाथ जी के चारुषेण आदि 105 गणधर थे। 2150 पूर्वधारी थे, एक लाख उन्तीस हजार तीन सौ शिक्षक थे। नौ हजार छह सौ अवधिज्ञानी तथा पन्द्रह हजार केवलज्ञानी थे। उन्नीस हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे तथा बारह हजार एक सौ पचास मनः पर्ययज्ञानी उनकी सभा में थे। वे बारह हजार वादियों सहित कुल दो लाख श्रमण सम्पदा से युक्त थे। धर्मार्या आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ थी। तीन लाख श्रावक तथा पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। असंख्य देवी-देवता तथा संख्यात तिर्यंच भी उनकी बारह प्रकार की धर्मसभाओं में सम्मिलित थे।
निर्वाण : जब आयु का एक माह अवशेष रहा तब प्रभु संभवनाथ ने सम्मेदशिखर पर जाकर एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया। चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन सायंकाल में प्रभु ने अपने अघातिया कर्म चतुष्टय का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया।