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472* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
श्रावक को किसी भी प्रतिफल की इच्छा के बिना, केवल धर्म की रक्षार्थ ही संल्लेखना धारण करनी चाहिये। तथापि जो व्यक्ति जीवन पर्यन्त श्रावक के व्रतों का निर्दोष पालन करता है तथा अन्त में संल्लेखना धारण कर शान्तिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होता है, वह आगामी जन्म में निश्चित रूप से महाऋद्धि से युक्त देवलोक अथवा किसी अच्छे स्थान में ही जन्म लेता है।
जैन दर्शन में नीति संबंधी नियमों का बहुत ही विशद् विवेचन किया गया है। नैतिक नियमानुसार जीवन जीने में ही जीवन की सफलता है। ये नैतिक नियम एक सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करते हैं, जिसमें सभी लोग, धनवान या निर्धन अपने आपको सुखी अनुभव कर सकते हैं। अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा, कि जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित नीति व्यवस्था को व्यवहार में पूर्ण रूप से अपना लिया जाए, तो निःसंदेह एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था की स्थापना होगी तथा मानव अपने उच्चतम आध्यात्मिक लक्ष्य को भी सहज ही प्राप्त कर सकेगा।
संदर्भ सूची : 1. वृहत्कल्पभाष्य गाथा 4584
As the science of the good, it is the science par excellence of the 'ideal' and 'ought'. - नीतिशास्त्र-डॉ. वात्स्याययन, पृ. 4 पवाएणं पवायं नाणेजा। 'सह सम्मुइयाए, पर वागरणेणं।' 'अन्नेसिंवा अन्तिए सोच्चा।' आचारांग सूत्र, अ. अमोलक ऋषि श्रुस्क. 1/5/6/2 पाश्चात्य नीतिशास्त्र। डॉ. रामनाथ शर्मा, पृ. 1 'A moralising note...... is otherwise quite foreign to Rigveda, the Rigveda is every thing but a text book of morals.' - A History of Indian Literature, Vol. I, 1927, P 115 यजुर्वेद, 1/5 स्थानांगसूत्र वृत्ति, सुधर्मास्वामी, अभयदेवसूरि, 399 वही 399
जम्बीद्वीप प्रज्ञप्ति - वक्षस्कार, सूत्र 14 10. स्थानांगसूत्र, सुधर्मास्वामी 7/66 11. त्रिषष्टिशलाकाचरित्र, 1/2/959 12. आवश्यकचूर्णि 156 13. श्रीमद्भागवत् 5/5/28/563 14. अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग - 4, राजेन्द्र सूरि जी, पृ. 2/52 15. संस्कृत-हिन्दी कोष-आप्टे, देखें नीतिशब्द 16. 'सर्वोपजीवकं लोकस्थिति कृन्नीति शास्त्रकं ।