Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar
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नीति मीमांसा * 481
165. मलबणिं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सं। पश्यन्नङ्गमनङ्गा द्विरमति यो ब्रह्मचारी
सः । रत्नकरण्डश्रावकाचार, समन्तभद्र, 5/22 166. मूल फल शाक शाखाकरीर कन्द प्रसून बीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्त विरतो
दयामूर्तिः ॥ वही, 5/20 167. अहावरा अट्ठमा उवासगा पडिमा.... आरंभे से परिणाए भवइ। पेसारंभे स अपरिण्णाए
भवइ ॥ द.श्रु स्कं०, 6/10 168. अहावरा नवमा उवासग पडिमा.... पेसारंभे से परिणाए भवइ । द.श्रु. स्कं. 6/11 169. अहावरा दसमा उवासग पडिमा.... जाव उद्दिट्ठभत्ते से परिण्णाए भव॥ से णं
खुरमुंडएवा, सिहाधार एवा, तस्स णं आभाट्ठस्स वा समाभाट्ठस्स वा कप्पंति दुवे
भासाओ भासित्तए, तंजहा - 1. जाणवाजाणं, 2. अजाणंवानोजाणं । वही, 6/12 170. गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्डे व्रतानि परिगृह्य ।
भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्ड धरः ॥ र. क. श्रा., समन्तभद्र, 5/26 171. सागार धर्मामृत - पं. आशाधर, 3/17
द्यूतं च मांसं च सुरा चवेश्या पापर्द्धिचौर्या परदारसेवाः। एतानि सप्तव्यसनानि लोके
पापाधिके पुंसिकराः भवंति ॥ रत्नकरंडश्रावकाचारः समन्तभद्र, सू. 116 172. प्रवचनसारो द्वार, द्वार 238 173. सचित्त-दव्व-विगइ, उवाहण-तंबोल-वत्थ-कुसुमेसु। वाहण-सयण-विलेवण-बंभ
दिसि-हाण-भतेसु ॥ संबोध प्रकरण, श्रावकाधिकार, हभिद्रसूरि गा. 121 174. समणेण सावएण य, अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा। अन्ते अहो-निसस्स य, तम्हा
आवस्सयं नाम । आवश्यक वृत्ति, गा. 2, पृ. 53 175. ठाणांगसूत्र, सुधर्मास्वामि 3/4/210 176. उपसर्गे, दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निः प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचन माहुः
सल्लेखनामार्याः ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समन्तभद्, पंचम अधिकार, गा. 1 177. उपासक दशांग सूत्र, 1/57

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