Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 500
________________ 498 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन इस प्रकार जैन धर्म ने साधना के केन्द्र में मनुष्य को प्रतिष्ठित किया। मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी विकृतियों पर विजय प्राप्त कर अपनी चेतना का सर्वोपरि विकास कर सकता है। मानव मन की विकृतियाँ हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ। इन्हें कषाय कहा गया है। इन कषायों की जड़ हैं- मानव इच्छा या कामना। ये इच्छाएँ कषायों में रूपान्तरित होती रहती है, जिससे चेतना का विकास सम्भव नहीं हो पाता। फलतः आत्मा की ज्ञान-दर्शन चारित्र व सुख की शक्तियाँ दबी हुई रहती है। साधक अपनी साधना द्वारा कामनाओं पर नियन्त्रण करके आत्म अनुशासन द्वारा अपनी आत्म शक्तियों को पूर्ण रूप से जागृत और विकसित कर सकता है। चेतना की इस पूर्ण विकसित अवस्था को ही केवलज्ञान तथा मोक्ष कहा है। यही वास्तविक स्वतन्त्रता है। इस स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए मनुष्य किसी अलौकिक शक्ति अथवा सत्ता पर निर्भर नहीं है। वह स्वयं इस अवस्था को प्राप्त करने में सक्षम और स्वतंत्र है। जैन दर्शन में इस अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की सम्यक् आराधना द्वारा आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों को क्षय करने की साधना कहा है। वर्तमान युग में सिक्युलरिज्म (Secularism) के जो विचार उभरे हैं, वे जैन दर्शन के धर्म के विचार से पर्याप्त मेल खाते हैं। सिक्युलरिज्म की भावना है, सभी धर्मों के प्रति आदर और सम्मान। धर्म के नाम पर किसी को ऊँचा नीचा न समझना। दूसरे शब्दों में सम्प्रदायातीत होना। जैन दर्शन में धर्म की जो व्याख्या है, वह सम्प्रदायातीत धर्म की व्याख्या है। इसमें सम्प्रदाय की अपेक्षा धर्म को जीवन की एक कला के रूप में प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से जैन धर्म का चिंतन सार्वजनीन, सर्वजनोपयोगी तथा सर्वोदयी है। जैन दर्शन में धर्म के दो भेद किए हैं। अनगार धर्म अर्थात्, मुनि धर्म और आगार धर्म अर्थात् गृहस्थ धर्म। मुनि धर्म वह धर्म है,जिसमें साधक तीन करण, तीन योग से हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह का आजीवन त्याग करता है, अर्थात् मुनि इस पापकर्मों को मन, वचन और काया से न करता है. न दसरों से करवाता है और न जो करते हैं उनको प्रोत्साहित करते हैं। वह पंच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह) धारी होता है। गृहस्थ धर्म वह धर्म है, जिसमें साधक महाव्रतों की बजाय अणुव्रतों को धारण करता है। वह अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार स्थूल रूप से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्याग करता है। गृहस्थ धर्म के आगे की सीढ़ी है- अनगार धर्म। गृहस्थ धर्म के नियम अर्थात् बारह व्रत एक प्रकार से किसी भी देश के आदर्श नागरिक की आचार संहिता है। ___ जैन दर्शन की क्रांतिकारी विचारधारा ने धर्म की आड़ में यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलि का सख्त विरोध किया। धर्म के अतिरिक्त भी मूक पशुओं के वध को रोकने के यथासंभव प्रयास किए। मांसाहार का निषेध कर पशुवध की प्रवृत्ति पर रोक

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