Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

View full book text
Previous | Next

Page 499
________________ उपसंहार * 497 हो और न ऐसे छायालोक में विश्वास करता है, जो इस पृथ्वी लोक से परे अनन्त सुखों की क्रीड़ा भूमि है। दूसरे शब्दों में विज्ञान यह स्वीकार नहीं करता, कि मानव को कोई दूसरी शक्ति सुखी या दुःखी बनाती है। चूंकि तथाकथित धार्मिक परम्पराएं मनुष्य के सुख दुःख के लिए स्वयं मनुष्य को नहीं, वरन् ईश्वर नाम की किसी अन्य शक्ति को उत्तरदायी ठहराती रही है, इसलिए विज्ञान ने धर्म का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। भौतिकवाद के इस युग में बाह्य भौतिक साधन-सामग्री का बहुलता से अन्वेषण हुआ है। लेकिन ये भौतिक सुख-सुविधाएँ व साधन भी मनुष्य को किसी सन्तोष जनक साध्य की ओर ले जाने में सक्षम नहीं रहे। फलस्वरूप मानव पुनः अपने अतीत में कुछ खोजने को प्रेरित हुआ, जहाँ कम साधनों के बावजूद अधिक सन्तुष्टि एवं परिपूर्णता का जीवन था। इस जागरण में सांस्कृतिक धरोहर का पुनर्मूल्यांकन होने लगा। धर्म-दर्शनों में निहित तथ्यों और आदर्शों की समसामयिक सन्दर्भो में व्याख्या होने लगी। जर्मनी के प्राच्य विद्या विशारदों की दृष्टि भारत की इस मूल्यवान धार्मिक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक निधि की ओर गई। मैक्समूलर और हरमन जैकोबी जैसे विद्वानों के नाम इस दिशा में विशेष उल्लेखनीय हैं। जब जैन दर्शन से विद्वानों का सम्पर्क हुआ और उन्होंने अपने अध्ययन से यह जाना, कि ईश्वर और परलोक को परे रखकर भी धर्म-साधना का चिंतन और अभ्यास किया जा सकता है, तो उन्हें धार्मिक सिद्धान्त तथ्यपूर्ण लगे। जैन दर्शन की इस मान्यता में उनकी विशेष दिलचस्पी पैदा हुई, कि ईश्वर सृष्टि का कर्ता नहीं है। षद्रव्यों के संयोग से सृष्टि की रचना स्वतः होती चलती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है। इस दृष्टि से सृष्टि का न आदि है न अंत है। यह अनादि अनन्त है। इसी प्रकार जीवों को सुख-दुःख कोई परोक्ष सत्ता नहीं देती है। जीव के स्वकृत कर्मों से ही उसे सुख-दुःख मिलते हैं। जीव किसी अन्य शक्ति अथवा ईश्वर पर निर्भर नहीं है। इस प्रकार जैन दर्शन में आत्म-निर्भरता पर सर्वाधिक बल दिया गया है। सृष्टि रचना और ईश्वरत्व के रूप में अपने पुरुषार्थपराक्रम के बल पर मानव चेतना के चरम-विकास (चेतना के उर्वीकरण) के सिद्धान्त ने धर्म और विज्ञान के अन्तर को कम कर दिया। आधुनिक विचारक धर्म और विज्ञान को एक दूसरे के विरोधी न मानकर पूरक मानने लगे हैं। दोनों की पद्धति और प्रक्रिया में अन्तर होते हुए भी उनके लक्ष्य में समानता है। जैन दर्शन ने धर्म को किसी मत या सम्प्रदाय से न जोड़कर मनुष्य की वृत्तियों से जोड़ा और क्षमा, सरलता, विनम्रता, सत्य, निर्लोभता, त्याग संयम, तप, ब्रह्मचर्य आदि की परिपालना को धर्म कहा। जो व्यक्ति धर्म की इस रूप से साधना करता है, वह देवता से भी महान् है। वह देवता को नमन नहीं करता, वरन् देवता उसे नमन करते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516