Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 497
________________ उपसंहार * 495 आधुनिक जीवन और सभ्यता का विकास जिस प्रकार से हुआ है, उसने धर्म के साथ जुड़े हुए प्रतिगामी मूल्यों को झकझोर दिया है। फलस्वरूप धर्म-दर्शन अतीत का व्याख्यान और भविष्य की स्वप्नदर्शी कल्पना मात्र समझा जाने लगा है। ज्ञान - विज्ञान के स्तर पर, जो आधुनिक जीवन दृष्टि विकसित हुई है, उसके साथ धर्म का कोई तालमेल नहीं है, लेकिन ऐसी सोच और समझ भ्रामक है। इस भ्रम निवारण के लिए आधुनिकता और धर्म-दर्शन के स्वरूप को सही परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक आधुनिकता को दो रूपों में समझा जा सकता है। एक तो समय सापेक्ष प्रक्रिया के रूप में और दूसरा विभिन्न प्रभावों से उत्पन्न चेतना के रूप में। प्रथम रूप में आधुनिकता कालवाची है, जो परिवर्तन और विकास की सारणियों को पार कर काल-प्रवाह के साथ आगे बढ़ती है। इस स्थिति में हर आगन्तुक क्षण अपने पूर्ववर्ती क्षण की अपेक्षा आधुनिक होगा और इस प्रक्रिया में परम्परा आधुनिकता से जुड़ी रहेगी, उससे कटकर एकदम अलग नहीं होगी। दूसरे रूप में आधुनिकता भाववाची है, विभिन्न प्रभावों से उत्पन्न चेतना रूप है। इसका सम्बन्ध मूल्यवत्ता से है। आधुनिक काल-खण्ड में रहते हुए भी कई बार व्यक्ति इस मूल्य परक चेतना को ग्रहण नहीं कर पाता। जैन दर्शन में यह चेतना समानता, स्वतन्त्रता, श्रमनिष्ठा, इन्द्रिय जय, आत्मसंयम, आन्तरिक वीतरागता, लोककल्याण, वैचारिक औदार्य, विश्वमैत्री, स्वावलम्बन, आत्म जागृति, कर्त्तव्य परायणता, आत्मानुशासन, अनासक्ति जैसे मूल्यों से जुड़ी हुई है, यही मूल्यवत्ता जैन दर्शन की आधुनिक दृष्टिवत्ता है। आधुनिकता के इस सन्दर्भ में धर्म सम्प्रदाय या मत बनकर नहीं रहता। वह आत्म जयता या आत्मस्वभाव का पर्याय बन जाता है। सभ्यता का विकास इन्द्रिय सुख और विषय-सेवन की ओर अधिकाधिक होने से आत्मा अपने स्वभाव में स्थित न होकर विभावाभिमुख होती जा रही है । फलस्वरूप आज संसार में चारों तरफ हिंसा, तनाव और विषमता का वातावरण बना हुआ है। विषमता से समता, दुःख से सुख और अशान्ति से शान्ति की ओर बढ़ने का मार्ग धर्ममूलक ही हो सकता है। लेकिन वर्तमान काल में सबसे बड़ा संकट यही है, कि व्यक्ति धर्म को अपना मूल स्वभाव न मानकर, उसे मुखौटा मानने लगे हैं। धर्म या दर्शन मुखौटा तब बनता है, जब वह आचरण में प्रतिफलित नहीं होता। सिद्धान्त और व्यवहार का बढ़ता हुआ अन्तर व्यक्ति को अन्दर ही अन्दर खोखला बनाता रहता है। जब धर्म अपने ही दार्शनिक सिद्धान्तों से हटकर लीक पीटने वाली रूढ़ि मात्र बन जाता है तब धर्म के प्रति अरूचि होने लगती है। लोग उसे अफीमी नशा और न जाने क्या-क्या कहने लग जाते है- यह सही है, कि इस धर्मोन्माद में बड़े-बड़े अत्याचार हुए हैं। विधर्मियों को झूठा ही नहीं ठहराया गया, वरन् उन्हें प्राणान्तक यातनाएँ भी दी

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