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उपसंहार 493
जैन संस्कृति की इसी निवृत्ति प्रधानता के कारण सामान्यतः लोगों में यह भ्रान्ति पायी जाती है, कि जैन धर्म ने संसार को दुःखमूलक बताकर निराशावाद को जन्म दिया है। संयम और विराग की अधिकता पर बल देकर मानव की अनुराग भावना और कला प्रेम को कुंठित किया है। लेकिन यह भ्रांति निर्मूल है। इस संस्कृति के संवाहकों ने आचार व्रत, नियम, कला, साहित्य, स्थापत्य आदि के रूप में बाह्य रूप को भी उजागर किया है। यह ठीक है, कि जैन धर्म ने संसार को दुःखमूलक माना, लेकिन किसलिए? अखण्ड आनन्द की प्राप्ति के लिए, शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए। यदि जैन धर्म संसार को दुःखपूर्ण मानकर ही रुक जाता, सुख प्राप्ति की खोज नहीं करता, उसके लिए साधना-मार्ग की व्यवस्था नहीं देता, तो हम उसे निरशावादी कह सकते थे, पर उसमें तो मानव को महात्मा बनाने की, नर से नारायण बनाने की, आत्मा को परमात्मा बनाने की आस्था का बीज छिपा हुआ है । दैववाद के नाम पर अपने को असहाय और निर्बल समझने वाले लोगों को किसने आत्म जागृति का सन्देश दिया? किसने उसके हृदय में छिपे हुए पुरुषार्थ को जगाया? किसने उसे अपने भाग्य का विधाता बनाया? जैन धर्म की यह विचारधारा युगों बाद आज भी बुद्धि जीवियों की धरोहर बन रही है, संस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रही है।
जैन दर्शन केवल निवृत्तिमूलक ही नहीं है, वरन् प्रवृत्ति को, जीवन के विधान पक्ष को भी उसने महत्त्व दिया है। इस धर्म-दर्शन के उपदेष्टा तीर्थंकर लौकिकअलौकिक वैभव के प्रतीक है। दैहिक दृष्टि से वे अनन्तबल, अनन्त सौंदर्य और अनन्त पराक्रम के धनी होते हैं । इन्द्रादि मिलकर उनके पंच कल्याणक महोत्सवों का आयोजन करते हैं। उपदेश देने के उनके स्थान (समवसरण) कलाकृतियों से अलंकृत होते हैं। जैन धर्म ने जो निवृत्तिमूलक बातें कही है, वे केवल उच्छृंखलता और असंयम को रोकने के लिए ही है ।
जैन संस्कृति की कलात्मक देन भी अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान रखती है वास्तुकला के क्षेत्र में विशालकाय कलात्मक मंदिर मेरुपर्वत की रचना, नंदीश्वर द्वीप व समवसरण की रचना, मानस्तम्भ, चैत्य, स्तूप आदि उल्लेखनीय है। मूर्तिकला में विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियों को देखा जा सकता है। चित्रकला में भित्ति चित्र, ताड़पत्रीय चित्र, काष्ठ चित्र, लिपि चित्र, वस्त्र पर चित्र आश्चर्य में डालने वाले हैं ।
इस प्रकार साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य के रूप में जैन संस्कृति का जो रूप दिखता है, वह भी काफी गौरवपूर्ण है। जैन संस्कृति की विशिष्टता यह है, कि इसमें कला को मात्र कला के लिए नहीं, साहित्य, संगीत आदि को केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं, वरन् इनको भी मानसिक एकाग्रता, अन्तर्लीनता, भक्तिरस की अनुभूति एवं परमात्म स्वरूप के साथ तदाकारता के लिए ही स्वीकार करती है । संस्कृति के बाह्य स्वरूप का विकास, अन्तर स्वरूप को पुष्ट करने के लिए माना है। यहाँ देह का
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