Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 494
________________ 492 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन क्रोधादि कषायों, हिंसादि पापकार्यों में रत रहता है । मनुष्य इच्छाओं का दास बनकर पाप पुण्य के चक्कर में भटकता रहता है । अतः इसको रोकने के लिए निवृत्ति की साधना की जानी चाहिये । ज्यों-ज्यों मनुष्य सांसारिक बन्धनों रागद्वेष आदि से निवृत्त होता जायेगा, वैसे-वैसे ही जन्म मरण का बन्धन भी शिथिल होकर सर्वथा क्षय हो जायेगा । निवृति का मार्ग अपनाने से दो कार्य होते हैं 1. दुःखोत्पत्ति के भावी कारणों का निरोध और 2. विद्यमान कारणों को नष्ट करना। पहले रूप में उन कारणों पर प्रतिबन्ध लगाने का लक्ष्य रहता है, जो वर्तमान में अदृश्य रूप से हमारी मानसिक क्रियाओं द्वारा होकर भविष्य में फलदायी बनते हैं। दूसरे में उन कारणों का क्षय करने का प्रयास होता है, जो अतीत के कार्यों से कारण रूप बनकर वर्तमान में दुःखोत्पत्ति कर रहे हैं । भावी कारणों की रोक के लिए अहिंसा और वर्तमान कारणों के क्षय के लिए संयम तप साधन हैं । इस त्रिपदी के समन्वय द्वारा निवृत्ति का फलितार्थ प्राप्त होता है । इसी को श्रमण संस्कृति ने धर्म कहा है- 'धम्मो ..... अहिंसा संजमो तवो ।' जैन संस्कृति का यह निवृत्ति परक आन्तर रूप व्यक्ति और समाज का आवश्यक अंग है। आत्मदर्शन की भावना प्रत्येक व्यक्ति में छिपी है और उसके लिए स्वयं प्रयत्न भी करता है । काषायिक प्रवृत्तियों से निवृत्त होना ही आत्मदर्शन (साक्षात्कार) का मार्ग है । यद्यपि आन्तरिक वासनाओं से वासनाओं पर विजय पाकर सर्वदा निवृत्त होना कठिन है, लेकिन असम्भव नहीं है। जो आत्मा का निग्रह कर लेते हैं, वे अपने आप पर संयम कर सकते हैं, वे धीरे-धीरे उनसे निवृत्त होकर सुख एवं आनन्द का अनुभव भी कर सकते हैं । - निवृत्ति के सम्बन्ध में यदि भारतीय दर्शनों की समीक्षा करें तो प्रत्येक दर्शन ने आत्मसाक्षात्कर के लिए निवृत्ति को मुख्यता दी है। कर्मकाण्डी मीमांसकों के अतिरिक्त सभी वैदिक और अवैदिक दर्शन निवृत्ति के उपदेष्टा हैं । जैन और बौद्ध संस्कृतियाँ तो मूलतः निवृत्ति परक हैं ही, किन्तु वैदिक समझे जाने वाले न्यायवैशेषिक, सांख्य योग और औपनिषद् दर्शनों की आधारशिला भी निवृत्ति मूलक है । उन्होंने आत्म साक्षात्कार के लिए प्रवृत्तिमूलक धर्म को हेय बताकर आत्मज्ञान और तत्सम्बन्धी व्यवहार को उपादेय बताया है और उसी के द्वारा पुनर्जन्म से निरत होना सम्भव मानते हैं। जैन संस्कृति का निवृत्ति परक आन्तर रूप अनुभवगम्य है। इसका स्पष्ट दर्शन श्रमण वर्ग में किया जा सकता है, जो तप, त्याग संयम की साधना के लिए ऐहिक भोगों और देह से ममत्व त्याग करते हैं। जनता उन्हें श्रद्धा से सिर झुकाती है। इतना ही नहीं, साधारण जन स्वयं अकिंचन अनगार का मार्ग अनुसरण करने में अपने जीवन की कृतार्थता मानते हैं ।

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