Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 496
________________ 494 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन पोषण पहलवानी के लिए नहीं, वरन् साधना और तपश्चर्या के लिए किया जाता है। इसी प्रकार साहित्य, संगीत आदि का विकास भी आत्म विकास की दृष्टि से ही हुआ है। इस प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति का समन्वय करके जैन दर्शन ने संस्कृति को लचीला बनाया है। उसकी कठोरता को कला की बांह दी है, तो कोमलता को संयम की शक्ति इसलिए वह आज भी जीवंत है। आर्यों के आगमन के पूर्व भी भारत में निवृत्ति परक धर्म का प्रचार था। इन निवृत्तिवादियों को वेदों में 'व्रात्य' शब्द से सम्बोधित किया गया है। व्रात्य का अर्थ है, तप, त्याग, ध्यान, अनासक्ति आदि व्रतों का अनुसरण करने वाले। इनकी यह निवृति मूलक वृत्ति इतनी सबल थी, कि प्रवृत्ति अनुगामी आर्य भी इनसे आकर्षित हुए और शनैः-शनैः उन्होंने भी आचार विचार मुलक बातों को अपनी प्रवृत्ति का अंग बना लिया। संभवतः तत्कालीन आर्यों में, उपनिषदों और उसके उत्तरवर्ती साहित्य में निवृत्ति की प्रधानता के स्पष्ट दर्शन होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मविद्या के प्रथम प्रवर्तक भगवान ऋषभ हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्म-चक्रवर्ती थे। ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या अवैदिक शब्द हैं। बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत-मतान्तरों का विकास आत्म वेत्ता क्षत्रियों की बदौलत ही संभव हो सका। क्योंकि आध्यात्म विद्या की परम्परा बहुत प्राचीन रही है, संभवतः वेद रचना से पहले भी रही है। उसके पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे। ब्राह्मण पुराण भी इस बात का समर्थन करते हैं, कि भगवान ऋषभ क्षत्रियों के पूर्वज हैं। उन्होंने सुदूर क्षितिज में आध्यात्म विद्या का उपदेश दिया था। वस्तुतः क्षत्रिय परम्परा ऋग्वेद काल से पूर्ववर्ती है। उपनिषद्-काल में क्षत्रिय ब्राह्मणों का पद छीन लेने को उद्यत नहीं थे, प्रत्युत ब्राह्मणों को आत्मविद्या का ज्ञान दे रहे थे। जैसा कि एम. विन्टरनिट्ज ने लिखा है, 'उपनिषदों में तो और कभी-कभी ब्राह्मणों में भी ऐसे कितने ही स्थल आते हैं, जहाँ दर्शन अनुचिन्तन के उस युग प्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वतः सिद्ध हो जाती है।" वर्तमान युग में जैन संस्कृति की उपादेयता : जैन दर्शन विश्व के प्राचीनतम दर्शनों में से हैं। अन्य कई दर्शन काल प्रवाह में विलीन हो गये। लेकिन जैन दर्शन की अविच्छिन्न धारा आज भी अविलरूप से प्रवाहमान है और उसमें निहित जीवन मूल्यों के वाचक प्रतिनिधि चतुर्विध संघ- श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका रूप से विद्यमान है। इससे यह स्पष्ट है, कि जैन दर्शन में ऐसे सार्वमतैक, सार्वकालिक तत्व हैं, जो सदियों पूर्व भी इतने ही महत्वपूर्ण थे और आज के वैज्ञानिक युग में भी उतने ही प्रासंगिक व महत्वपूर्ण है।

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