Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 485
________________ उपसंहार * 483 धर्म-दर्शन सदियों से आज तक प्रवर्तमान है। जी हाँ, मैं जैन धर्म-दर्शन के सन्दर्भ में ही कह रही हूँ, जिसकी प्राचीनता को विविध प्रमाणों द्वारा इस शोध कार्य में प्रमाणित किया है। जैन धर्म-दर्शन एक अति प्राचीन धर्म है, यह तो सर्वविदित हो गया है। भारत को आर्यावर्त एवं अहिंसा प्रधान देश कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है, कि भारत में जैन धर्म का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वैदिक काल से पूर्व जैन धर्म का अस्तित्व स्वयं वेद पुराणों के द्वारा प्रमाणित हो चुका है। जैसे यजुर्वेद में लिखा है, 'ऊँ नमो अर्हन्तों ऋषभो'। जिसका अर्थ है, अहँत ऋषभदेव को नमस्कार हो। इस प्रकार के अनेक प्रमाण पूर्व में दिए जा चुके हैं। इस प्रारम्भिक धर्म-दर्शन ने मानव को किस प्रकार संस्कारित किया और आज यह अपने मौलिक रुप में कितना उपादेय है? अन्त में इसी तथ्य को उजागर करने का प्रयास कर रही हूँ। जैन धर्म-दर्शन का मानव संस्कृति के विकास में योगदानः संस्कृति के विकास का क्षेत्र या आधार मानव जीवन है। मानवेत्तर प्राणियों का संस्कृति में कोई प्रयोजन नहीं है। उनकी एक निश्चित रूढ़ जीवन प्रणाली है। प्राप्त का भोग करना ही उनके जीवन की प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया में नवीनता लाना या परिवर्तन करना उनकी क्षमता से परे है। मानव ही अपने जीवन को सुन्दर, सुसंस्कृत बना सकता है। मानव में ही वह क्षमता है, जो नर से नारायण बन सके, मानव से महामानव के पद पर पहुँच सके। संस्कृति उस सुन्दर सरिता के समान है, जो अपने स्वच्छन्द भाव से निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। यदि सरिता के प्रवाह को बाँध दिया जाए तो वह सरिता नहीं रह जाएगी। इसी प्रकार संस्कृति एक व्यापक तत्त्व है। उसे शब्दों की सीमा में बाँध देने पर उसकी प्रवाहशीलता का निदर्शन नही हो सकता। उसे विशेषणों द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता है। संस्कृति मानव के भूत, वर्तमान व भावी जीवन का सर्वांगीण स्वरुप है, जीवन की प्राणवायु है, प्रेरक शक्ति है, जीवन जीने की कला है। संस्कृति का प्राणतत्व है- सतत् प्रवाह शीलता। संस्कृति विचार, आदर्श भावना और संस्कार प्रवाह का वह संगठित एवं सुस्थित संस्थान है, जो मानव को अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होता रहता है। इस उत्तराधिकार को दो भागों में बाँटा जा सकता है- भौतिक और आध्यात्मिक । भौतिक संस्कृति को सभ्यता भी कहते हैं। इसमें भवन वसन. वाहन आदि उस समस्त भौतिक सामग्री और साधनों का समावेश किया जा सकता है, जिसका मानव समाज ने अपने श्रम से निर्माण किया है। आध्यात्मिक संस्कृति में आचार, विचार, विज्ञान और संस्कार का समावेश होगा। सभ्यता एवं संस्कृति परस्पराश्रित हैं, लेकिन समानार्थक नहीं। सभ्यता प्रदर्शन है और संस्कृति अन्तर दर्शन है। संस्कृति का केन्द्र बिन्दु आत्मा है, जिसकी प्राप्ति के लिए

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