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उपसंहार * 485
आसान काम नहीं था। ऋषभदेव जी ने ही वर्ण-व्यवस्था को प्रारंभ किया। वणिक, क्षत्रिय, व शूद्र की स्थापना की। उन्होंने स्पृश्यास्पृश्य भेद के बिना असि, मसि और कृषि अर्थात् स्वरक्षा, लेखन और खेती का ज्ञान दिया। कर्म के आधार पर ही वर्ण निर्धारण होता था। एक वणिक-पुत्र क्षत्रिय हो सकता था। इस प्रकार मानव को कल्पवृक्षों की अधीनता से मुक्त कर उसे स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बनाया।
इस प्रकार जैन धर्म दर्शन के प्रथम प्रणेता ने राज्य व समाज व्यवस्था को स्थापित करके मानव जीवन को सरस, शिष्ट एवं व्यवहार योग्य बनाया। इसके पश्चात् उन्होंने ही सर्वप्रथम आत्म तत्व की प्राप्ति का प्रयास किया और उसे प्राप्त कर जैन धर्म दर्शन का प्रवर्तन किया। चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन भगवान ऋषभदेव जी चार हजार पुरुषों के साथ देवदृष्य वस्त्र लेकर चार मष्ठि से केशलुंचन करके मंडित होकर अनगार दशा को स्वीकार करते हैं। भगवान ने चार हजार साधकों को अपने हाथ से प्रव्रज्या प्रदान नहीं की, किन्तु उन्होंने स्वयं ही भगवान का अनुकरण कर स्वयं लुंचन आदि क्रियाएँ की।
श्रमण बनने के पश्चात ऋषभदेव जी अखण्ड मौनव्रती बनकर एकांत-शांत स्थान में ध्यानस्थ होकर रहने लगे। वे अनासक्त भाव से अम्लानचित्त से भिक्षा के लिए नगर-ग्रामों में परिभ्रमण करते। लेकिन भिक्षा विधि से अनभिज्ञ लोग, उन्हें भोजन के स्थान पर राज्य, धन, कन्याएं आदि भेंट करने का प्रयास करते और वे लौट जाते। पूरे एक संवत्सर के पश्चात बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ राजा के पुत्र श्रेयांस कुमार ने भक्ति विभोर हृदय से ताजा आया हुआ इक्षुरस भगवान को प्रदान किया। विशुद्ध आहार जानकर भगवान ने उसे ग्रहण किया। इस प्रकार सर्वप्रथम इक्षुरस पान करने के कारण वे काश्यप नाम से भी विश्रुत हुए। वैशाख शुक्ला तृतीया को इक्षुरस से वर्षीतप का पारणा हुआ। अतः वह तृतीया 'इक्षु तृतीया' या अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध
चूंकि भगवान मौनस्थ थे। अतः वे चार हजार अनुगामी साधक भूख-प्यास से संतप्त होकर किसी दिशा निर्देश के अभाव में सम्राट भरत के भय से पुनः गृहस्थ न बनकर वत्कलधारी तापस बन गये।
भगवान ऋषभदेव जी ने दीक्षा के पश्चात् अपनी आत्मा को एक हजार वर्ष तक भावित करते हुए फाल्गुन कृष्ण एकादशी को अनन्त केवल दर्शन, केवल ज्ञान को प्राप्त किया। उससे वे समस्त लोकालोक के भाव को जानने लगे। तभी उन्होंने प्रथम प्रवचन देकर जन-जन को उद्बोधित किया। उसे श्रवण कर सम्राट भरत के पाँच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रों ने तथा ब्राह्मी आदि ने दीक्षा ग्रहण की। भरत आदि ने श्रावक व्रत ग्रहण किए। इस प्रकार श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करके वे सर्वप्रथम तीर्थंकर बने। श्रमण धर्म के लिए पंच महाव्रत और गृहस्थ