Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 491
________________ उपसंहार *489 संपूर्ण भारतीय संस्कृति त्याग और सर्वभूतदया से ओतप्रोत है, लेकिन जितना बल जैन संस्कृति ने इस पर दिया है और जितनी गति की है वह विलक्षण है। जैन संस्कृति की प्रमुख विशेषता और संसार को सबसे बड़ी देन अहिंसा है। जैन दर्शन ने ही सर्वप्रथम यह उद्बोधन दिया, कि प्राणीमात्र जीवित रहने की कामना करता है, अतः प्राणीमात्र की रक्षा करो। वध सभी को अप्रिय लगता है और जीना सबको प्रिय लगता है। अतः जैन दर्शन ने वेदानुयायियों के धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा का कड़ा विरोध किया। यज्ञ के नाम पर की गई हिंसा अधर्म है। सच्चा यज्ञ आत्मा को पवित्र बनाने में है। इसके लिए क्रोध की बलि दीजिये, मान को मारिये, माया को काटिये और लोभ का उन्मूलन कीजिये । धर्म के इस अहिंसामय रूप ने संस्कृति को अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत बना दिया । उसे जन रक्षा (मानव समुदाय) तक सीमित न रखकर समस्त प्राणियों की सुरक्षा का दायित्व सौंप दिया। यह जनतंत्र से भी आगे प्राणतंत्र की व्यवस्था का सुन्दर उदाहरण है । जैन दर्शन ने सांस्कृतिक विषमता के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की । वर्णाश्रम व्यवस्था की विकृति का शुद्धिकरण किया। जन्म के आधर पर उच्चता और नीचता का निर्णय करने वाले ठेकेदारों को मुँह तोड़ जवाब दिया । व्यक्तित्व का मानदण्ड कर्म को बताया । हरिकेशी चाण्डाल तथा सवालपुत्त कुम्भकार को भी आचरण की पवित्रता के कारण आत्म-साधकों में गौरवपूर्ण स्थान दिया। अपमानित और अचल सम्पत्तिवत मानी जाने वाली नारी के प्रति आत्म-सम्मान और गौरव की भावना जगाई । उसे धर्म-ग्रन्थों को पढ़ने का ही अधिकार नहीं दिया वरन् आत्मा के चरम विकास मोक्ष की भी अधिकारिणी माना । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस युग में सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाली भगवान ऋषभदेव जी की माता मरुदेवी ही थी। नारी को अबला और शक्तिहीन नहीं समझा गया । उसकी आत्मा में भी उतनी ही शक्ति संभावना मानी गई है जितनी पुरुष में । नारी को दब्बू, आत्मभीरु और साधना क्षेत्र में बाधक नहीं माना गया। उसे साधना में पतित पुरुष को उपदेश देकर संयम-पथ पर लाने वाली प्रेरक शक्ति के रूप में देखा गया। राजुल ने संयम से पतित रथनेमि को उद्बोधन देकर अपनी आत्मशक्ति का ही परिचय नहीं दिया, वरन तत्वज्ञान का वास्तविक स्वरूप भी समझाया। जैन संस्कृति ने भारत में सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को भी बलवती बनाया है। यह समन्वय विचार और आचार दोनों क्षेत्रों में देखने को मिलता है । विचार समन्वय के रूप में अनेकान्त दर्शन का प्रतिपादन किया है। आचार समन्वय की दिशा में श्रमण धर्म तथा गृहस्थ धर्म की व्यवस्था दी है। ज्ञान और क्रिया का, प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुन्दर सामंजस्य किया गया है। सांस्कृतिक एकता के संरक्षण एवं संवर्द्धन में जैन दर्शन का महत्वपूर्ण योगदान

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