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नीति मीमांसा* 471
12 या 13 से भाद्रसुदी 4 या 5 तक यह पर्व मनाया जाता है। इसमें तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय आदि आत्मशोधक प्रवृत्तियों की आराधना की जाती है। इसका अन्तिम दिन संवत्सरी कहलाता है। वर्ष भर की भूलों के लिए क्षमा देना और क्षमा लेना इसकी स्वयंभूत विशेषता है। यह पर्व मैत्री व उज्जवलता का संदेशवाहक है।
__ दिगम्बर परम्परा में भाद्रशुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक दसलक्षण पर्व मनाया जाता है, इसमें प्रतिदिन क्षमा आदि दस धर्मों में से एक-एक
धर्म की आराधना की जाती है। इसलिए इसे दस लक्षण पर्व कहते हैं। 5. महावीर जयन्ती : महावीर जयंती चैत्र शुक्ला 13 को भगवान महावीर के
जन्म दिवस के रूप में मनायी जाती है। 6. दीपावली : दीपावली का सम्बन्ध महावीर भगवान के निर्वाण से है।
कार्तिक अमावस्या को भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। उस समय देवों ने और राजाओं ने प्रकाश किया था। उसी का अनुसरण वर्तमान में
दीप जलाकर किया जाता है। 11. जन्म-कर्त्तव्य : श्रावक को अपने जीवन में निम्न कर्त्तव्यों को एक बार अवश्य आचरण करना चाहिये।
1. जिन मन्दिर बनवाना। 2. जिन प्रतिमा को स्थापन करना। 3. पुत्र-पुत्री को महोत्सवपूर्वक दीक्षा दिलवाना। 4. साधु-साध्वी के आचार्य, उपाध्याय गणिपद तथा प्रवर्तिनी पद का
महोत्सव करना। 5. पौषधशाला का निर्माण करना।
12. संल्लेखना मरण : संल्लेखना शब्द का अर्थ है, शरीर तथा कषाय को क्षीण करना। मरण काल में अशन-पान का क्रमशः सर्वथा त्याग कर शरीर को तथा निरन्तर आत्मोपासना में लीन रहकर क्रोधादि कषायों को क्षीण करना अन्त में शान्तिपूर्वक मृत्यु का आलिंगन करना संल्लेखना मरण कहलाता है। संल्लेखना के संदर्भ में आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है, कि श्रावक बारह व्रतों का विधिवत् पालन करके अन्त में उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, रोग आदि निष्प्रतिकार आपत्ति के आ जाने पर अपने धर्म की रक्षा के लिए संल्लेखना को धारण करे।"
श्रावक को भी श्रमण के द्वारा त्याज्य संल्लेखना के पाँच अतिचारों को त्यागना चाहिये। जिनका श्रमणाचार में विस्तृत उल्लेख किया जा चुका है- 1. इहलोगा संसप्पओगे, 2. परलोगा संसप्पओगे, 3. जीवियासंसप्पओगे, 4. मरणासंसप्पओगे, 5. कामभोगासंसप्पओगे।"