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108 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
मिले इस दरवाजे के बाजू पर भी देखने योग्य कलाकारी है।
4. सूर्य की प्रतिमा : यह मूर्ति केशवजी के मन्दिर से मिली है। जिस बैठक पर यह मूर्ति है, उसकी बनावट बहुत ही सुन्दर है । मूर्ति के एक-एक हाथ में कमल का पुष्प है ।
5. श्रमण मूर्ति : यह एक तरफ से खण्डित जैन श्रमण कृष्णर्षि की मूर्ति है, जिनके एक हाथ में रजो हरण तथा दूसरे हाथ में मुखवस्त्रिका है। उनके ऊपर की ओर मध्य में समवशरण की रचना तथा दोनों ओर दो-दो तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं । विद्वानों के अनुसार इस कृति का काल वि.सं. के दो शताब्दियों पूर्व का है। (परिशिष्ट 3)
6. स्तंभ : कंकाली टीले से अनेक प्रकार के प्राचीन कलात्मक स्तंभ निकले हैं। वे सभी बहुत ही सुन्दर हैं।
7. पाटव के स्तंभ : इन पर बहुत ही अजीब तरह की मूर्तियाँ बनी हुई हैं । मूर्तियों में वस्त्र रहित स्त्रियों की मूर्तियाँ अधिक है। एक स्त्री अद्भुत जीव पर खड़ी है, जिसकी शक्ल मनुष्य तथा बन्दर का मिश्रित रूप है तथा उसका पेट बहुत बड़ा है। एवं कमर में जांघिया सा पहना हुआ हैं 1
8. जिन तीर्थंकर की पूरे कद की मूर्ति : मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त इस मूर्ति का ऊपरी भाग दाहिनी तरफ से खंडित है। दूसरी एक मूर्ति पद्मासन में अधिष्ठित है । ये दोनों ही ध्यान मुद्राएँ हैं । ये मूर्तियाँ वि०सं० पूर्व दो सौ वर्ष की हैं। ये अब लखनऊ के म्यूजियम में विद्यमान हैं। मुहम्मद गजनी ने 1018 ई०स० में मथुरा को ध्वंस किया तभी शायद ये मूर्तियाँ खण्डित हुई हों। (परिशिष्ट 1 तथा 2)
इन उपर्युक्त अवशेषों से यह ज्ञान होता है, कि मथुरा में बहुत प्राचीन काल से लम्बे समय तक जैन धर्म समृद्ध रूप से प्रचलित रहा होगा। शायद इक्कीसवें तीर्थंकर नमीनाथ के समय से क्योंकि यह उनकी जन्म कल्याण भूमि है।
इनके अतिरिक्त कुछ समय पूर्व मोहन जोदड़ों की खुदाई में एक प्राचीन मूर्ति प्राप्त हुई है, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है । यह ध्यान मुद्रा जैनों में ही प्रचलित थी। प्राचीन मिस्री मूर्तियों तथा प्राचीन यूनानी कुराई नामक मूर्तियों में भी प्रायः वही आकृति है तथापि उनमें उस देहोत्सर्ग निसंग भाव का अभाव है, जो सिन्धुघाटी की मुद्राओं पर अंकित मूर्तियों में तथा कायोत्सर्ग मुद्रा से युक्त जिन मूर्तियों में पाया जाता है।
इस प्रकार सिन्धुघाटी के वृषभ के लांछनयुक्त ऋषभदेव की योगीमूर्तियों के अतिरिक्त नागफण से युक्त योगी मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं । ये मूर्तियाँ सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व की हो सकती हैं । इनका लांछन स्वास्तिक है और तत्कालीन सिन्धु घाटी में स्वास्तिक एक अत्यन्त लोकप्रिय चिह्न दृष्टिगोचर होता है। सड़कें तथा गलियाँ तक स्वास्तिकाकार मिलती हैं। 19