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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 271
आचार्य विद्यानन्द अबाधितत्व बाधक प्रमाण के अभाव या कथनों को पारस्परिक सामंजस्य को प्रामाण्य का नियामक मानते हैं। आचार्य अकलंक, बौद्ध
और मीमांसक अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापन अर्थात् अज्ञान अर्थ के ज्ञापन को प्रामाण्य का नियामक तत्त्व मानते हैं। संवादी प्रवृत्ति और प्रवृत्ति सामर्थ्य - इन दोनों का व्यवहार सर्व-सम्मत है। किंतु ये प्रमाण्य के मुख्य नियामक नहीं बन सकते। संवादक ज्ञान प्रमेयाव्यभिचारी ज्ञान की भांति व्यापक नहीं है। प्रत्येक निर्णय में तथ्य के साथ ज्ञान की संगति अपेक्षित होती है, वैसे संवादक ज्ञान प्रत्यक्ष निर्णय में अपेक्षित नहीं होता। वह कदाचित ही सत्य को प्रकाश में लाता है।
प्रवृत्ति सामर्थ्य अर्थ-सिद्धि का दूसरा रूप है। ज्ञान तब तक सत्य नहीं होता, जब तक वह फलदायक परिणामों द्वारा प्रामाणिक नहीं बन जाता। यह भी सर्वाधिक सत्य नहीं है। इसके बिना भी तथ्य के साथ ज्ञान की संगति होती है। यह सत्य की कसौटी बनता है, इसलिए यह अमान्य भी नहीं है। प्रमाणता और अप्रमाणता का यह भेद बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से समझना चाहिये। प्रत्येक ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक ही जानता है। अतः स्वरूप की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण होते हैं। बाह्य पदार्थों की अपेक्षा कोई ज्ञान प्रमाण होता है, कोई अप्रमाण।
प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति : जैन दर्शन के अनुसार प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति परतः होती है। जैसा कि वादिदेव सूरि लिखते हैं -
___तदुभयमुत्पत्तौ परत एव०० ज्ञान की उत्पत्ति में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों पर निमित्त से होते हैं। ज्ञानोत्पादक सामग्री में मिलने वाले गुण और दोष क्रमशः प्रामाण्य और अप्रामाण्य के निमित्त बनते हैं। निर्विशेषण सामग्री से यदि ये दोनों उत्पन्न होते तो इन्हें स्वतः माना जाता, किंतु ऐसा होता नहीं। ये दोनों सविशेषण सामग्री से उत्पन्न होते हैं, जैसे गुणवत सामग्री से प्रामाण्य और दोषवत् सामग्री से अप्रामाण्य। अर्थ का परिच्छेद प्रमाण और अप्रमाण दोनों में होता है। किंतु अप्रमाण (संशय-विपर्यय) में अर्थ परिच्छेद यथार्थ नहीं होता है। प्रमाण में वह यथार्थ होता है। अयथार्थ परिच्छेद की भांति यथार्थपरिच्छेद भी सहेतुक होता है। दोष मिट जाए, मात्र इससे यथार्थता नहीं आती। वह तब आती है, जब गुण उसके कारण बने। जो कारण बनेगा वह 'पर' ही होगा। अतः प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों ही विशेष स्थिति सापेक्ष है, इसलिए इनकी उत्पत्ति परतः होती है।
प्रामाण्य निश्चय : प्रमाण्य निश्चय स्वतः तथा परतः दो प्रकार से होता है, जैसा कि हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं
'प्रामाण्य निश्चयः स्वतः परतोवा।। जिन कारणों के द्वारा ज्ञान की प्रमाणिकता का निश्चय होता है, अर्थात् प्रमेय को निश्चयात्मक रूप से जाना जाता है, वे स्वतः और परतः दो प्रकार से जाने जाते हैं।