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286 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
अवग्रहादि के सामान्य विषय के सन्दर्भ में लिखते हैं -
__“अर्थस्य। अर्थात् अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चारों मतिज्ञान अर्थ (वस्तु) को ग्रहण करते हैं। द्रव्य और पर्याय को वस्तु कहते हैं, इसका दूसरा नाम अर्थ भी है। अवग्रहादि ज्ञान मुख्य रूप से पर्याय को ही ग्रहण करते हैं, संपूर्ण द्रव्य को नहीं। द्रव्य को वे पर्याय द्वारा ही जानते हैं, क्योंकि इन्द्रिय और मन का मुख्य विषय पर्याय ही है। पर्याय द्रव्य का एक अंश है। इसलिए अवग्रह, ईहा आदि द्वारा जब इन्द्रियाँ और मन अपने-अपने विषयभूत पर्याय को जानते हैं, तब वे उस पर्याय रूप से द्रव्य को अंशतः ही जानते हैं। क्योंकि द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं रहता और द्रव्य भी पर्याय रहित नहीं होता। जैसे नेत्र का विषय रूप, संस्थान (आकार) आदि है, जो पुद्गल द्रव्य की पर्याय विशेष है। नेत्र आम्रफल आदि को ग्रहण करता है, इसका तात्पर्य यही है, कि वह उसके रंगरूप तथा आकार विशेष को जानता है। रूप और आकार विशेष आम से भिन्न नहीं है, इसलिए स्थूल दृष्टि से यह कहा जाता है, कि नेत्र से आम देखा गया, लेकिन यह स्मरण रखना चाहिये, कि उसने मात्र नेत्र से संपूर्ण आम को ग्रहण नहीं किया, क्योंकि आम में तो रूप और संस्थान के अतिरिक्त स्पर्श, रस, गन्ध आदि अनेक पर्याय हैं, जिनको जानने में नेत्र असमर्थ हैं। इसी प्रकार स्पर्श, रसना और घ्राण इन्द्रियाँ जब गरम-गरम जलेबी आदि वस्तु को ग्रहण करती है, तब वे क्रमशः उस वस्तु के उष्ण स्पर्श, मधुरता और सुगन्ध रूप पर्याय को ही जानती है। कोई भी इन्द्रिय वस्तु के संपूर्ण पर्यायों को नहीं जान सकती। कान भी भाषात्मक पुद्गल के ध्वनिरूप पर्याय को ही ग्रहण करता है, अन्य पर्यायों को नहीं। मन भी किसी विषय के अमुक अंश का ही विचार करता है। वह एक साथ संपूर्ण अंशों का विचार करने में असमर्थ है। इससे यह सिद्ध है, कि इन्द्रिय जन्य और मनोजन्य अवग्रह, ईहा आदि चारों ज्ञान पर्याय को ही मुख्य रूप से विषय करते हैं और द्रव्य को वे पर्याय द्वारा ही जानते हैं।
अवग्रह के भेद : नन्दी सूत्र में श्रुत निश्रित अवग्रह के दो भेद बताए गए हैं - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। ___ "उग्गहे दुविहे पण्णते, तं जहा अत्थुग्गहे य वंजणुग्गहे य॥""
1. व्यंजनावग्रह : व्यंजनावग्रह चार प्रकार का है 1. श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, 2. घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, 3. रसनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, 4. स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रह ।'
श्रोत्र आदि पाँच उपकरणेन्द्रियों का शब्द, गन्ध आदि पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होने को व्यञ्जना कहते हैं। उस सम्बन्ध से शब्द आदि पदार्थों का जो अव्यक्त ज्ञान होता है, वह व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। अथवा इन्द्रियों से प्राप्त शब्द आदि द्रव्यों का अस्पष्ट ज्ञान भी व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। अर्थात् शब्द आदि के साथ उपकरणेन्द्रिय के सम्बन्ध क्षण से लेकर अर्थावग्रह से पूर्व तक जो सुप्त प्रमत्त या मूर्च्छित पुरुष की