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306 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
होगी। यही कारण है, कि बाद में जब हेतु का स्वरूप व्याप्ति के कारण निश्चित हुआ
और हेतु से ही मुख्य रूप से साध्य सिद्धि मानी जाने लगी तथा हेतु के सहायक रूप से ही दृष्टान्त या उदाहरण का उपयोग मान्य रहा, तब केवल दृष्टान्त के बल से की जाने वाली साध्य सिद्धि को जाव्युत्तरों में समाविष्ट किया जाने लगा। यह स्थिति न्यायसूत्र में स्पष्ट है। अतएव मात्र उदाहरण से साध्यसिद्धि होने की भद्रबाहु की बात किसी प्राचीन परम्परा की ओर संकेत करती है, यह मानना चाहिये।
आचार्य मैत्रैय ने अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त ये तीन अवयव माने हैं। भद्रबाहु ने भी उन्हीं तीनों का उल्लेख किया है। माठर और दिग्नाग ने भी पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन ही अवयव माने हैं और पांच अवयवों का मतान्तर रूप से उल्लेख किया है।
पाँच अवयवों में दो परम्पराएँ हैं। एक माठर निर्दिष्ट और प्रशस्तपाद सम्मत तथा दूसरी न्यायसूत्रादि सम्मत । भद्रबाहु ने पाँच अवयवों में न्याय सूत्र की परम्परा का ही अनुगमन किया है। परन्तु दश अवयवों के विषय में भद्रबाहु का स्वातन्त्र्य स्पष्ट है। न्यायभाष्यकार ने भी दश अवयवों का उल्लेख किया है, किन्तु भद्रबाहु निर्दिष्ट दोनों दश प्रकार से वात्स्यायन के दश प्रकार भिन्न है। इस प्रकार न्यायवाक्य के दश अवयवों की तीन परम्पराएँ सिद्ध होती है। यह अग्रसारिणी से स्पष्ट है -
चार्ट 1 मैत्रेय माठर दिग्नाग प्रशस्तपाद न्यायसूत्र न्यायभाष्य
10 प्रतिज्ञा
प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा
अपदेश हेतु दृष्टान्त दृष्टान्त दृष्टान्त निदर्शन उदाहरण उदाहरण
अनुसंधान उपनय उपनय प्रत्याम्नाय निगमन निगमन
जिज्ञासा
संशय शक्यप्राप्ति प्रयोजन
!
पक्ष
पक्ष
पक्ष
संशयव्युदास