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तत्त्व मीमांसा * 371
जैन दर्शन की तरह सापेक्ष दृष्टि से दिया है। उसने कहा, कि वह न एकान्त रूप से अनन्त है और न सान्त है। आकाश ससीम है, लेकिन उसका कोई अन्त भी नहीं है। आकाश ससीम है, लेकिन सीमा से आबद्ध नहीं है। विज्ञान का यह सिद्धान्त जैन दर्शन द्वारा मान्य लोक-आकाश और अलोक-आकाश के निकट है। क्योंकि लोकआकाश एक सीमा में आबद्ध है, उसका अन्त भी है, परन्तु अलोक आकाश की कोई सीमा नहीं है-वह अन्तरहित है, अनन्त है।
धर्म, अधर्म व आकाश ये तीनों द्रव्य व्यवहारनय से एक क्षेत्रावगाही, असंख्यात प्रदेशी कहे गए हैं। फिर भी अपने-अपने स्वरुप की अपेक्षा से अर्थात् स्वचतुष्टय की अपेक्षा से धर्म, अधर्म व आकाश ये तीनों द्रव्य भी भिन्न-भिन्न ही हैं।
6. काल द्रव्यः काल द्रव्य अस्तित्ववान होने पर भी एक प्रदेशी होने के कारण 'काय' नहीं कहलाता, अतः काल द्रव्य को अस्तिकाय नहीं माना जाता है। काल द्रव्य में वर्तना, हेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व गुण पाये जाते हैं। जैसा कि तत्वार्थ सूत्र में कहा है
"वर्तना परिणाम: क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य। अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं। अपने अपने पर्याय की उत्पत्ति में स्वयमेव प्रवर्तमान धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को निमित्त रुप से प्रेरणा करना वर्तना है। स्वरुप का त्याग किए बिना पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय को धारण करना परिणाम है। ऐसा परिणाम जीव में ज्ञानादि तथा क्रोधादिरुप, पुद्गल में नील-पीतादि रूप और धर्मास्तिकायादि शेष द्रव्यों में अगुरु लघु गुण की हानि वृद्धि रूप है। परिस्पन्द को गति कहा जाता है। ज्येष्ठत्व को परत्व और कनिष्ठत्व को अपरत्व कहा जाता है। इन सबका निमित्त हेतु काल ही है।
काल के दो भेद किए गए हैं- 1. व्यवहार काल तथा 2. निश्चय काल।
जीव और पुद्गलों के परिणाम से समयादि रूप में उत्पन्न होने वाला काल व्यवहार काल है। व्यवहार काल क्षणभंगुर है। समय, निमिष, काल, घड़ी, दिन-रात, मास, ऋतु, अयन, वर्ष आदि संख्यात काल व्यवहार काल कहा जाता है। व्यवहार परद्रव्य परिणमन सापेक्ष है, अतः यह पराधीन है।
निश्चयकाल अविनाशी है। निश्चयकाल पंचवर्ण, पंचरस सहित, दो गन्ध और अष्ट स्पर्श रहित, अगुरु लघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। काल की स्वभाव पर्याय होने से यह स्वाधीन है। पल्य, सागर आदि असंख्यात या अनन्त काल को निश्चयकाल कहा जाता है। अन्य द्रव्यों के परिणमन में बाह्य निमित्त कारण कालाणु रूप निश्चयकाल द्रव्य है। जिस प्रकार स्वयं परिभ्रमणशील कुम्हार के चाक की गति में आधारभूत कीली निमित्त होती है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों की परिणति में काल द्रव्य निमित्त है।